बनवारी।

नेपाल की मार्क्सवादी सरकार के सिर पर फिर से संकट के बादल घिर आए हैं। महीने भर पहले ओली सरकार गिरते-गिरते बची थी। ओली सरकार की इस अस्थिरता का कारण पुष्प कमल दाहाल प्रचंड की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है। वे सरकार की बागडोर संभालने को उतावले हैं। खडग प्रसाद शर्मा ओली भी कम्युनिस्ट हैं और प्रचंड भी। नेपाल की संसद में ओली की पार्टी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) बड़ी पार्टी है। 601 सदस्यों वाली संसद में उनकी पार्टी के 175 सांसद हैं। प्रचंड की नेपाल एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी-केंद्र) छोटी पार्टी है और उसके 80 सांसद हैं। दोनों पार्टियां ओली की गठबंधन सरकार में साझीदार हैं। संसद में सबसे अधिक प्रतिनिधित्व वाली नेपाली कांग्रेस विपक्ष में बैठी है। लेकिन सत्ता के इस खेल की डोर उसी के हाथ में है। उसने प्रचंड को कह दिया है कि वह उनके नेतृत्व में एक वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए तैयार हैं। प्रचंड ने अपनी पार्टी के गृह मंत्री बस्नेत से प्रधानमंत्री की अवमानना करवा कर तख्ता पलटने का खेल शुरू कर दिया है।
भारतीय उपमहाद्वीप में इस समय नेपाल अकेला ऐसा देश है जहां मार्क्सवादी अभी भी राजनीतिक रूप से शक्तिशाली हैं। तीन करोड़ की आबादी वाले छोटे से नेपाल में इस समय आधा दर्जन से अधिक कम्युनिस्ट पार्टियां हैं। 2008 में राजशाही समाप्त होने के बाद नेपाल को संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित कर दिया गया था। राजशाही की समाप्ति में प्रचंड के नेतृत्व में दस वर्ष तक चले सशस्त्र संघर्ष की प्रमुख भूमिका थी। हालांकि राजशाही उनके सशस्त्र संघर्ष से नहीं सात लोकतांत्रिक दलों के जन आंदोलन से समाप्त हुई थी। लेकिन इस आंदोलन को शक्ति प्रदान करने में कम्युनिस्टों के सशस्त्र संघर्ष की बड़ी भूमिका थी। इसलिए जब नया संविधान बनाने के लिए व्यवस्थापिका संसद के पहले चुनाव हुए तो प्रचंड की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। किसी दल को स्पष्ट बहुमत न होने के कारण गठबंधन सरकारें बनीं।
संसद में नेपाली कांग्रेस दूसरी बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। कम्युनिस्टों की अपनी प्रतिस्पर्धा के कारण पहली सरकार नेपाली कांग्रेस के गिरिजा प्रसाद कोईराला की बनी। लेकिन 83 दिन बाद ही प्रचंड उन्हें अपदस्थ करके अपनी सरकार बनाने में सफल हो गए। प्रचंड की सरकार 280 दिन चली। वे अपनी जनमुक्ति सेना को नेपाल सेना में प्रवेश दिलाना चाहते थे। इस पर मतभेद के बाद उन्होंने सेना अध्यक्ष को हटाने की कोशिश की लेकिन राष्ट्रपति को वे इसके लिए राजी नहीं कर पाए और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उसके बाद दूसरी कम्युनिस्ट पार्टी के माधव कुमार नेपाल को सरकार बनाने में सफलता मिल गई। पांच वर्ष की अवधि में दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को दो-दो बार और नेपाली कांग्रेस को एक बार सरकार बनाने का अवसर मिला लेकिन संविधान नहीं बन पाया।
संसद के पहले चुनाव में नेपाल की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को पचास प्रतिशत के आसपास वोट मिले थे। आपसी प्रतिस्पर्धा और सरकार बनाने के जोड़तोड़ में पड़े रहकर उन्होंने यह जनसमर्थन खो दिया। 2013 में संसद के जो चुनाव हुए उसमें कम्युनिस्ट पार्टियों को मुश्किल से 40 प्रतिशत वोट मिले। पहली संसद में मुख्य दल के रूप में उभरी प्रचंड की पार्टी इस बार तीसरे स्थान पर पहुंच गई और नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर आई। नई संसद के सामने सबसे बड़ी चुनौती संविधान तैयार करना ही थी। पहली सरकार के मुखिया सुशील कोईराला ने घोषणा की कि वे नया संविधान स्वीकृत हो जाने के बाद इस्तीफा दे देंगे। उन्होंने ऐसा ही किया। 12 अक्टूबर 2015 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया। नए संविधान के अंतर्गत फिर से सरकार बनाने की उन्होंने कोशिश की पर खडग प्रसाद ओली अधिक समर्थन जुटाकर सरकार में पहुंच गए।
नए संविधान में अपने हकों से वंचित किए गए तराई के मधेसियों ने संविधान में बदलाव की मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया। लगभग पांच महीने भारत के साथ व्यापार के रास्तों की घेरेबंदी करके आंदोलनकारियों ने नेपाल का जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया। मधेसी आंदोलन ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि सामाजिक बराबरी और न्यायिक अधिकारों की दुहाई देने वाले सभी राजनीतिक समूह अपने निहित स्वार्थों की रक्षा में कितने संकीर्ण हो सकते हैं। नेपाल के मौजूदा संविधान को बनाने में जिन दलों और नेताओं की मुख्य भूमिका रही है वे हर जन आंदोलन के दौरान मधेसियों के साथ होने वाले राजनीतिक भेदभाव का विरोध करते रहे हैं और उन्हें उनके स्वाभाविक राजनीतिक अधिकार दिलवाने की दुहाई देते रहे हैं। लेकिन संविधान बनाते समय वे मधेसियों को नेपाल की राजनीति की मुख्य धारा से बाहर रखने पर एकमत दिखाई दिए। उनके बनाए संविधान में नेपाल की कुल जनसंख्या का एक तिहाई यानी एक करोड़ मधेसी दूसरे दर्जे के नागरिक ही बनाकर रखे गए हैं।
नेपाल भौगोलिक रूप से मुख्यत: एक पहाड़ी देश है। भारत से सटे निचले भाग में उसकी एक बीस किलोमीटर चौड़ी मैदानी पट्टी है। यह नेपाल के पूरे भूगोल का 23 प्रतिशत क्षेत्र बैठता है। यह नेपाल का उर्वर और सुगम क्षेत्र है। इसलिए इस तराई क्षेत्र में नेपाल की लगभग 51 प्रतिशत आबादी रहती है। इस आबादी का 70 प्रतिशत मैथिली भाषी और थारू जनजाति के लोग हैं। हालांकि थारू खुद को मधेसी कहे जाने का विरोध करते हैं लेकिन राजनीतिक रूप से वे और मैथिल एक ही वर्ग में रखे जाते रहे हैं। नेपाल सामाजिक और राजनीतिक रूप से पहाड़ी और मधेसी में विभाजित है। मधेसी भारत से अपनी भौगोलिक और सामाजिक निकटता के कारण पहाड़ी प्रशासन द्वारा संदेह की दृष्टि से देखे जाते हैंैं। उन्हें राजनीतिक प्रकिया से बाहर रखने की निरंतर कोशिश होती रही है। लेकिन उनकी संख्या बहुलता के कारण ऐसा करना प्रतिस्पर्धी राजनीति में संभव नहीं है। इसलिए नेपाल के शासक वर्ग में उन्हें लेकर उहापोह बनी रहती है।
नेपाल की राजनीति में मधेसियों को लेकर सबसे अधिक दोहरा व्यवहार मार्क्सवादियों ने ही दिखाया है। अपने सशस्त्र विद्रोह के दौरान प्रचंड ने मधेसियों को न्यायोचित अधिकार दिलाने की घोषणा की थी। सत्ता में पहुंचने के बाद उनका रुख बदल गया। उनके इस दोहरेपन का प्रमाण 26 सितंबर, 2015 को पार्टी से दिया गया बाबूराम भट्टाराई का इस्तीफा है। बाबूराम भट्टाराई प्रचंड की पार्टी के दूसरे सबसे बड़े नेता थे। अपनी इसी स्थिति के कारण वे 29 अगस्त, 2011 को बनी पार्टी की दूसरी सरकार में प्रधानमंत्री थे। उनकी सरकार प्रचंड के नेतृत्व में बनी पार्टी की पहली सरकार से दोगुनी अवधि तक चली थी। बाबूराम भट्टाराई पहाड़ी हैं लेकिन मधेसियों को न्यायोचित अधिकार दिलाने के लिए पार्टी से इस्तीफा देकर उन्होंने अपनी नई पार्टी बना ली है- न्यू फोर्स नेपाल। अब वे अपने आप को कम्युनिस्ट नहीं मानते।
नेपाल के कम्युनिस्ट किसी वर्ग संघर्ष के नहीं बल्कि विषम आर्थिक परिस्थितियों की उपज हैं। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म 15 सितंबर, 1949 को कलकत्ता में हुआ था। तब से अब तक अधिकांश नेपाली कम्युनिस्ट नेताओं की शिक्षा दीक्षा भारत में ही होती रही है। भारत के बारे में नेपाल के मार्क्सवादियों में हमेशा एक दोहरापन रहा है। जब वे सत्ता के बाहर होते हैं तो भारत के खिलाफ झूठे-सच्चे आरोप लगाते हुए असंतोष भड़काते रहते हैं। जब सत्ता में होते हैं तो भारत की अनुकूलता पाने के लिए दिल्ली दौड़ते रहते हैं। जब दिल्ली में उनकी मनोकामनाएं पूरी नहीं होती तो वे चीन से हाथ मिलाने का नाटक करते हैं। नाटक इसलिए कि नेपाली नेता और चीन दोनों जानते हैं कि नेपाल से भौगोलिक और सामाजिक दूरी के कारण चीन भारत की जगह नहीं ले सकता। यह सिलसिला दरअसल नेपाल की राजशाही के समय शुरू हुआ था। नेपाल के राजाओं को आशंका रहती थी कि आंदोलनकारी नेताओं और पार्टियों को भारत का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन मिल रहा है। इसी की प्रतिक्रिया में नेपाली राजाओं ने चीनी कार्ड खेलना शुरू किया। मार्क्सवादी नेताओं ने उन्हीं से यह गुर सीखा है।
नेपाल की वास्तविक समस्या उसका अति राजनीतिकरण है। दुनिया भर में मार्क्सवादी आंदोलन एक विचारधारात्मक आंदोलन ही रहा है जिसका स्थानीय परिस्थितियों से कोई सीधा संबंध नहीं होता। नेपाल का मार्क्सवादी आंदोलन भी कागजी बहस में अधिक उलझा रहा है। अब तक नेपाल का मार्क्सवादी आंदोलन जितने गुटों में विभाजित हुआ है, दुनिया के किसी देश में शायद ही हुआ हो। उनकी मुख्य चिंता नेपाल के लोगों का सुख दुख नहीं बल्कि क्रांति की रणनीतिक दिशा को लेकर चलने वाली बहसें रही हैं। अब अधिकांश कम्युनिस्ट नेता इस निष्कर्ष पर पहुंचे दिखते हैं कि वे सशस्त्र क्रांति से नहीं लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जनाधार बढ़ाकर ही सत्ता में पहुंच सकते हैं। लेकिन सत्ता में पहुंचने की महत्वाकांक्षा हर नेता को एक अलग दिशा में ले जाती है। यह फूट और प्रतिस्पर्धा ही उनकी सबसे बड़ी समस्या रही है।
इस समय नेपाल के सभी राजनीतिक दलों की सबसे बड़ी चिंता राजनीति में स्थिरता लाकर उसे आर्थिक उन्नति की दिशा में आगे बढ़ाने की होनी चाहिए। लेकिन वे सत्ता के दांवपेंच में उलझ कर रह गए हैं। प्रचंड सात वर्ष बाद फिर से सत्ता में पहुंचने को उतावले हैं लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी समस्या जनमुक्ति सेना के शिविरों में अब तक रह रहे सहयोगियों को सेना या और कहीं व्यवस्थित करने की होगी। नेपाल की सर्वोच्च अदालत दस वर्ष के विद्रोह के दौरान मुक्ति सैनिकों द्वारा किए गए अपराधों और अत्याचारों के बारे में गंभीर है। उनकी अपनी पार्टी में असंतोष और निराशा बढ़ती जा रही है। प्रचंड को इन सबसे उबरने का एक मात्र रास्ता सरकार में पहुंचना दिखाई देता है। लेकिन सत्ता में पहुंच कर वे अपना रहा सहा जनसमर्थन भी गवां सकते हैं।
नेपाली राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वह भारत के सहयोग से अपनी उन्नति के मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ सकती है लेकिन भारत के बारे में उसने एक स्थायी ग्रंथि पाल ली है। उसे हर घटना में भारत का षड्यंत्र देखने की आदत पड़ गई है। विशेष कर मार्क्सवादी इस ग्रंथि के ज्यादा शिकार हैं। अब तक वे राजा और भारत के खिलाफ भावनाएं भड़का कर ही अपनी राजनीति करते रहे हैं। अब राजा नहीं रहा। भारत विरोध पर वे कब तक अपनी राजनीति टिकाएं रहेंगे? नेपाली कांग्रेस नेपाल की सर्वाधिक जनाधार वाली पार्टी थी। पिछले एक डेढ़ दशक की उथल-पुथल में वह कम्युनिस्टों से पिछड़ गई। अब वह फिर से अपनी प्रधानता स्थापित करना चाहती है। इसका तरीका यही है कि साम्यवादी पार्टियों को एक दूसरे से भिड़ा दिया जाए। ओली और प्रचंड एक दूसरे से भिड़ गए हैं।
ओली सरकार का गिरना पिछले महीने ही दिख रहा था। प्रचंड ने ओली से मिलकर कह दिया था कि उनकी पार्टी सरकार से समर्थन वापस ले रही है। वे प्रचंड के लिए कुर्सी खाली कर एक राष्ट्रीय सरकार की हामी भर दें। चतुर ओली ने एक नौ सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर करके संकट कुछ समय के लिए टाल दिया था। नौ सूत्री कार्यक्रम में एक बिंदु राष्ट्रीय सरकार का गठन था। लेकिन अनौपचारिक समझौता यह था कि ओली जल्दी पद छोड़ देंगे और प्रचंड को प्रधानमंत्री बनने देंगे। उन्होंने यह अफवाह फैलवा दी थी कि सत्ता परिवर्तन भारत के इशारे पर हो रहा है। प्रचंड ने यह सोचकर उस समय अपने पैर पीछे हटा लिए कि वे भारत के मोहरे न दिखाई दें। लेकिन संकट दूर हो जाने के बाद ओली का मन बदल गया। अब वे सरकार छोड़ने को तैयार नहीं है। वे चाहते हैं कि सरकार गिरे तो उसका लांछन प्रचंड पर आए। उनकी सरकार जाएगी यह निश्चित है लेकिन इससे दोनों की विश्वसनीयता समाप्त होगी। भारतीय उपमहाद्वीप में मार्क्सवादियों का यह अंतिम गढ़ अब ढहता दिखाई दे रहा है।