जारी है…

बांदा

केन नदी भी छोड़ रही साथ….

‘केन नदी से बांदा के सत्तर प्रतिशत लोगों की जलापूर्ति होती है, लेकिन केन नदी भी इस बार साथ छोड़ रही है। नदी में जहां जहां पानी है, हम जेसीबी से खुदाई करके पानी निकाल रहे हैं। गहराई तक जाकर पानी निकाल रहे हैं। मगर मानसून जल्द नहीं आया तो यह पानी भी खत्म हो जाएगा। हमें नहीं पता उस स्थिति में हम क्या करेंगे, बांदावासियों को पानी कहां से पिलाएंगे?’ जलसंस्थान के अधिकारी सुरेश चंद की यह बात सूखे से अकाल की तरफ इशारा करती है। सुरेशचंद ने कहा कि हम सब चिंतित हैं लेकिन बुंदेलखंड का इतिहास है कि जब तीन साल सूखा पड़ता है तो फिर जमकर बारिश होती है। सूखे के बाद बाढ़ बुंदेलखंड की नियति है। सुरेशचंद की बातें भय पैदा करती हैं। अगर बरसात नहीं हुई तो क्या होगा? और अगर हुई तो क्या सूखे के बाद बाढ़ को झेलेंगे बांदावासी या यों कहें बुंदेलखंडवासी। अधिकारी का यह बयान सुनने के साथ ही हमारी बांदा यात्रा शुरू हुई।

बांदा देहात की तो छोड़ो शहर तक में पानी की मारामारी है। यहां की सरकारी कांशीराम कालोनी तो सियासत की भेंट चढ़ गई है। हैंडपंप पानी छोड़ चुके हैं। मायावती सरकार में बनी इस कालोनी की प्यास बुझाने वाला कोई नहीं है। यह कालोनी हमेशा से ही विवादों में रही है। कभी एलॉटमेंट में बंदरबांट को लेकर तो कभी छुटभैये नेताओं के लिए दारुबाजी का अड्डा होने को लेकर। बांदा में अपराध के मामले में नंबर-1 यह कालोनी कुख्यात है। लेकिन यहां लोग वाकई गरीब हैं, जो बोरिंग नहीं करा सकते। उनकी प्यास सियासी उलटबांसियों का शिकार हो गई। यहां रहने वाले जगतराम कहते हैं, ‘समाजवादी पार्टी के लिए यह कालोनी अछूत है इसलिए यहां के लोगों को न तो पानी मिलता है और न ही सुरक्षा। अपराध का अड्डा बन चुकी इस कालोनी को बसपा सरकार का इंतजार है। शायद बहनजी अपनी इस विरासत का उत्थान करें।’ यही क्यों पॉश कालोनी इंद्रानगर में भी पानी की त्राहि-त्राहि मची है। चाहे कितने भी दावे किए जाएं लेकिन यहां टैंकर भूले भटके ही पहुंचते हैं। गांव की तरफ रुख करें तो तिंदवारी ब्लाक के संग्रामपुर गांव के हैंडपंप सूखे पड़े हैं। खाली कुओं में कचरा भरा है। संग्रामपुर के रामाधीन बताते हैं- ‘करीब दस कुएं हैं इस गांव में। हर बार कुछ कुएं जिंदा रहते थे मगर इस बार सारे कुएं सूखे पड़े हैं। एकाध कुआं जिंदा है उसी से जैसे तैसे काम चल रहा है। करीब दो किलोमीटर पर ट्यूबवेल है, उसका पानी ही हमारा सहारा है।’ टैंकर की बात पूछने पर पास बैठी दुजिया बोलती है, ‘ कौन भेजेगा टैंकर। यहां कोई सरकारी आदमी नहीं आता, सब डरते हैं, यहां पहाड़ियों पर कोई न कोई डकैत अपना डेरा जमाए रहता है। अभी गोपा का कहर है। इससे पहले संग्राम सिंह, बलखड़िया, ठोकिया और ददुआ थे।’ इस गांव में दोहरी त्रासदी है। एक तो पानी नहीं। दूसरा डाकुओं की आमद पर खुशामद। इतना बोलते-बोलते वह चुप हो गई क्योंकि पास खड़े एक बुजुर्ग ने उसे न बोलने का इशारा किया। पास के गांव गोबरी गोड़रामपुर का भी यही हाल है। वहां के लोग भी इस दोहरी मार का शिकार हैं। इन गांवों में हर किसान कर्जदार है। यहां बैंक से कर्ज दिलाने वाले कई दलालों के नाम सुनने को मिल जाएंगे। कर्ज दिलाने का कमीशन भी पांच, दस, पंद्रह और कोई कोई दलाल तो पच्चीस प्रतिशत तक इसे सुविधा शुल्क के नाम पर वसूलता है।

पूरे दिन जिले का चक्कर लगाने के बाद एक बार फिर जलसंस्थान के अधिकारी सुरेश चंद से बात कर उन्हें पूरी स्थिति बताई। सुरेश चंद सूखे को लेकर चिंतित हैं और बाढ़ की आहट से आशंकित। उन्होंने सूखे की समस्या के मूल कारण और समाधान भी बताया- ‘बुंदेलखंड में सबसे बड़ी समस्या है पानी का स्टोरेज न करना। बरसात के पानी को बहाने की जगह उसे स्टोर करना चाहिए। सरकारी तौर पर भी और निजी तौर पर भी। लेकिन सूखा और बाढ़ आने पर ही हम चिंतित होते हैं। इस साल पहली बार बांदा का जलस्तर 120 से 150  फीट नीचे चला गया है। सामान्य तौर पर यहां 70-80 फीट पर ही पानी मिल जाता था।’

मध्य प्रदेश का जिला पन्ना

पानी न मिलै से जिंदगी मौत बन जात

‘हियां हम मरै जाए रहे, खदानन की धूल फांकत फांकत टी.बी. हो जात अउर गर्मी मा पानी न मिलै से जिंदगी मौत बन जात।’ भरी दोपहरी में एक बजे झिरिया से पानी ले जा रहे गरजन ने आग बबूला होते हुए ये बातें कहीं। गरजन मानसनगर पुरुषोत्तमपुर ग्राम पंचायत में रहते हैं। यहां पिछले दो महीने से यही हाल है। सुमति झिरिया से पानी निकालकर दिखाते हुए कहती है, ‘हम ऐसा पानी पीते हैं जिससे आप शौचें भी नहीं।’ सुमति की बात सौ फीसदी सच है क्योंकि पानी वाकई पीने लायक नहीं था। अपनी छोटी बाल्टी को रस्सी से बांधकर पानी निकालते हुए आठ दस साल की पारवती हमें बार बार देखती है। कुछ पूछो तो कोई जवाब नहीं। इस बीच छह सात साल की तीता पानी के गड्ढों यानी झिरिया में घुसकर लुटिया से पानी भरभरकर अपनी मां को कलश भरने के लिए देती है। दो कलश भरने के बाद तीता की मां तीता को झिरिया से निकालकर उसके सिर पर छोटा कलश रख देती है। तीता चुपचाप खेतों से होती हुई घर को निकल जाती है। इस बीच पारवती हमारे करीब आकर धीरे से कहती है, ‘का तुम कुआं खुदवाहो, हियां झिरियन में पानी कम होए रहो?’ पारवती के सवाल का जवाब हमारे पास नहीं था। इन झिरिया के अगल बगल कुछ लोगों ने सुबह नौ बजे से धरना प्रदर्शन कर रखा था। दोपहर एक बजे तक यहां कोई नहीं पहुंचा। समाज सेवी युसुफ बेग की अगुवाई में यह धरना चल रहा था। युसुफ बेग को लगातार फोन आ रहे थे कि वह अनशन खत्म करें। लेकिन इन लोगों ने ठान लिया था कि जब तक टैंकर नहीं आता तब तक हम पानी नहीं पिएंगे। थक हारकर लोक स्वास्थ्य यंत्रिकी विभाग के अधिकारी को वहां आना पड़ा। अधिकारी से जब यह सवाल किया गया तो उन्होंने साफ कहा कि टैंकर भेजने का प्रस्ताव हमारे पास अभी तक नहीं भेजा गया था। हमारी जानकारी में नहीं था कि दो महीने से यहां जल संकट है। मौके पर मौजूद सरपंच सचिव से पूछा तो उन्होंने कहा कि हमने तो एक महीना पहले ही पानी के टैंकर के लिए प्रस्ताव भेज दिया था। लेकिन प्रस्ताव लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने यह कहते हुए रद्द कर दिया कि मानसनगर में पानी की कोई कमी नहीं है। दूर दूर खडेÞ सरपंच सचिव और अधिकारी को जब आमने सामने किया गया तो भी तय नहीं हो पाया कि प्रस्ताव भेजा गया था या नहीं? हैरत की बात तो यह है कि जब शहर से डेढ़ किलोमीटर दूर इस इलाके पर प्रशासन की नजर नहीं पड़ी तो दूर दराज के गांव का क्या हाल होगा। मनोर ग्राम पंचायत के गुड़ियाना गांव का हाल भी इससे अलग नहीं है। यहां झिरिया जवाब दे चुकी हैं। टंकी थी मगर बीस दिन पहले वह भी खराब हो गई। एकमात्र सहारा अब र्इंट के भट्टे में लगा बोर है। सिलिकोसिस बीमारी से जूझ रहे लंबू हाथ जोड़कर कहते हैं, ‘भला हो र्इंट भट्टे वाले का कि हमें पानी लेने से नहीं रोकते। नहीं तो हम प्यासे ही मर जाएं। वैसे भी पत्थर की धूल फांक-फांककर यहां न जाने कितने लोग मेरे साथ रोजाना मौत की तरफ बढ़ रहे हैं।’ यहां हर तीसरे आदमी को सिलिकोसिस और दूसरे आदमी को टी.बी. है। गांव में कोई बुजुर्ग नहीं दिखता। पचास साल के मिलन कहते हैं, ‘पूरे गांव में मुझसे बुजुर्ग कोई नहीं। यहां लोग टी.बी. और सिलिकोसिस से जवानी में ही मर जाते हैं।’

कुछ दूर पर ही मांझा गांव है जहां पत्थरों की खदानों से सौ मीटर दूर पर पत्थरों के ही घर बने हैं। फूलाबाई एक किलोमीटर दूर खाली गगरी लेकर नंगे पांव निकलने की जल्दी में हैं। हमारे रोकने पर वह गगरी एक तरफ रखकर हमसे बात करने को राजी होती हैं। नंगे पांव किसलिए? शायद गरीबी या फिर जल्दी जल्दी पानी भरने के चक्कर में चप्पल पहनना भूल गई हो! बात कुछ भी हो लेकिन शहरों में घरों की शान बनने वाले पत्थर यहां आग बरसाते हैं, जिंदगियां छीनते हैं। सवाल उठता है कि मध्य प्रदेश में मामा बने शिवराज सिंह को यहां गरमी में तप रहे अपने भांजे भांजियों की सुध क्यों नहीं आती? डी.एम. शिवनारायण सिंह चौहान से जब पूछा कि इन गांवों में टैंकर क्यों नहीं जाते? पानी का स्थायी हल क्यों नहीं निकलता? तो वह अनभिज्ञता जताते हुए कहते हैं कि हम तो पूरे जिले में टैंकर भेज रहे हैं। पता लगाता हूं, अधिकारियों से पूछता हूं अगर कोई ऐसा गांव है तो वहां टैंकर जरूर पहुंचेगा। आप चिंता न करें। मुझे लगा कि जिस कलेक्टर साहब को शहर से डेढ़ दो किलोमीटर की दूर पर बसे इन इलाकों की प्यास की खबर नहीं है उनसे दूर के गांवों का हाल पूछना तो मूर्खता ही होगा।

उधर पन्ना के सामाजिक कार्यकर्ता यूसुफ बेग का कहना है, ‘उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड से ज्यादा खराब स्थिति मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड की है। साल दर साल यहां पानी की स्थिति गंभीर होती जा रही है। अजीब बात यह है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से इस पर सवाल खूब होते हैं, शिवराज चौहान से सवाल क्यों नहीं पूछे जाते। मैं पिछले पंद्रह सालों से यहां काम कर रहा हूं। एक ही सरकार है मगर जल संकट खत्म होने की जगह गहराता जा रहा है।’