अनूप भटनागर

पुरानी कहावत है- खोदा पहाड़, निकली चुहिया। देश की राजनीति को झकझोरने वाले बहुचर्चित 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में भी ऐसा ही कुछ हुआ है। 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंसों के आवंटन में अनियमितताओं की वजह से हजारों करोड़ रुपये के राजस्व का अनुमान लगाने वाले नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट के आधार पर सात साल चले इस मुकदमे में सीबीआई की विशेष अदालत ने पाया कि कोई घोटाला नहीं हुआ। अदालत ने बेहद तल्ख लहजे में कहा कि किसी भी प्रकार के आर्थिक नुकसान की खबरों का दूरसंचार विभाग द्वारा खंडन किए जाने को किसी ने स्वीकार नहीं किया और सभी को इसमें एक बड़ा घोटाला नजर आने लगा जबकि घोटाला हुआ ही नहीं था। यही नहीं, कुछ लोगों ने तो कलाकारी के साथ कुछ तथ्य एकत्र करके इसे पुख्ता बनाया और कल्पनाओं से भी परे बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर दिया।

इस फैसले का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि अदालत ने भले ही सभी आरोपियों को बरी कर दिया है लेकिन उसने प्रधानमंत्री कार्यालय के तत्कालीन दो शीर्ष नौकरशाहों के साथ ही तत्कालीन कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज, तत्कालीन विधि सचिव टीके विश्वनाथन, पूर्व अटार्नी जनरल गुलाम वाहनवती, विशेष लोक अभियोजक आनंद ग्रोवर और अभियोजन के वकीलों की भूमिका पर बेहद सख्त और प्रतिकूल टिप्पणियां की है।

निश्चित ही विशेष अदालत के जज इस नतीजे पर कोर्ट के समक्ष पेश रिकॉर्ड और साक्ष्यों की गहन विवेचना के बाद ही पहुंचे हैं। अदालत ने कहा कि अभियोजन (सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय) किसी भी आरोपी के खिलाफ एक भी आरोप साबित करने में बुरी तरह विफल रहा है। इसलिए सभी को बरी किया जाता है।

इस मामले में सीबीआई ने दो और प्रवर्तन निदेशालय ने धन शोधन के आरोपों में आरोप पत्र दाखिल किया था। सीबीआई के आरोप पत्र में 17 और प्रवर्तन निदेशालय के आरोप पत्र में 19 आरोपी थे। इनमें से कई नाम दोनों ही आरोप पत्र में थे। विशेष अदालत ने कुल 2,183 पेज के तीन फैसले सुनाए। इनमें से सीबीआई के मुख्य मामले में अदालत का फैसला 1,552 पेज का था। इस फैसले के परिप्रेक्ष्य में एक सवाल बार-बार जेहन में उठ रहा है कि यदि ऐसा कुछ था ही नहीं तो फिर सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में इतना अधिक समय क्यों लगाया और उसने सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय को इसकी गहन जांच के आदेश ही क्यों दिए थे? शीर्ष अदालत ने 2 फरवरी, 2012 के फैसले में सभी 122 लाइसेंस रद्द करते हुए क्यों कहा था कि ये आवंटन गैर कानूनी थे और क्यों सात ऐसे आवंटियों पर जुर्माना लगाया जो न्यायालय के निष्कर्ष के अनुसार इसके पात्र नहीं थे?

सीबीआई की विशेष अदालत के न्यायाधीश ओपी सैनी ने अपने फैसले में सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और दूरसंचार विभाग के साथ ही प्रधानमंत्री कार्यालय के दो वरिष्ठ नौकरशाहों पुलक चटर्जी और टीकेए नायर पर तीखी टिप्पणियां की। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने पूर्व संचार मंत्री ए राजा और द्रमुक सांसद कनिमोझी सहित सभी 17 आरोपियों को बरी कर दिया। विशेष अदालत की तमाम प्रतिकूल टिप्पणियों पर यदि गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो यह निष्कर्ष निकालना अनुचित नहीं होगा कि सीएजी की रिपोर्ट में सामने आए तथ्यों के आधार पर चले इस मुकदमे में हर स्तर पर किसी न किसी प्रकार की चूक हुई। यह कहना मुश्किल है कि चूक जानबूझ कर की गई या अंजाने में लेकिन हाई प्रोफाइल मामलों में देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसियों की भूमिका पर हमेशा ही सवाल उठते रहे हैं। शायद यही वजह है कि कोयला खदान आवंटन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता की पदवी से नवाजने में भी संकोच नहीं किया था।
अदालत ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को स्पेक्ट्रम आवंटन के मामले में सारे तथ्यों से अवगत नहीं कराने और उन्हें गुमराह करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय के वरिष्ठ नौकरशाह पुलक चटर्जी और टीकेए नायर पर आक्षेप किए हैं। इन दोनों अधिकारियों ने मनमोहन सिंह के लिए जो नोट तैयार किया वह तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा के पत्र से कहीं अधिक लंबा था। इसी तरह अदालत ने पूर्व अटार्नी जनरल गुलाम वाहनवती की गवाही पर भी टिप्पणी करते हुए कहा कि उन्होंने जानबूझ कर दूरसंचार विभाग की प्रेस विज्ञप्ति के मसौदे से इनकार किया और सरकारी रिकॉर्ड से पल्ला झाड़ा। वाहनवती ने 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन के लिए संशोधित नीति के बारे में दूरसंचार विभाग की संशोधित प्रेस विज्ञप्ति को सरकारी रिकॉर्ड में सही और उचित बताया था जबकि गवाही में एकदम विपरीत बात कही। अदालत ने वाहनवती की गवाही को भरोसेमंद नहीं माना और उसे अस्वीकार कर दिया। वाहनवती यूपीए सरकार में पहले सॉलिसीटर जनरल और फिर अटार्नी जनरल थे। उनका 2 सितंबर, 2014 को निधन हो गया था।

विशेष अदालत की इन टिप्पणियों के साथ निकाले गए निष्कर्ष से हालांकि सभी चकित हैं लेकिन इतना तो निश्चित है कि सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय इस फैसले को जल्द ही दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती देंगे। विशेष न्यायाधीश भी इस तथ्य से अवगत हैं और शायद इसी वजह से उन्होंने बरी किए गए सभी आरोपियों को पांच-पांच लाख रुपये का मुचलका और इतनी ही राशि की जमानती देने का आदेश दिया ताकि अपील होने की स्थिति में उनकी उपस्थिति सुनिश्चित हो सके। इस पूरे प्रकरण में भले ही राजनीतिक नजरिये से नरेंद्र मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया जाए लेकिन इस तथ्य से इनकार ही नहीं किया जा सकता कि इसमें केंद्र सरकार की भूमिका लगभग नगण्य थी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सारे प्रकरण की जांच हुई। सीबीआई ने पहला आरोप पत्र 2 अप्रैल, 2011 को, दूसरा आरोप पत्र 25 अप्रैल, 2011 को दाखिल किया था। इस मामले में सभी 17 आरोपियों के खिलाफ 23 अक्टूबर, 2011 को अभियोग निर्धारित हुए थे और उसके बाद 11 नवंबर, 2011 से मुकदमा शुरू हुआ था।

विशेष अदालत के जज ने कहा, ‘मैं यह जोड़ सकता हूं कि आरोप पत्र में दर्ज अनेक तथ्य तथ्यात्मक रूप से गलत हैं। मसलन वित्त सचिव ने एंट्री शुल्क में बदलाव की जोरदार सिफारिश की, ए राजा द्वारा आशय पत्र के मसौदे से एक उपबंध हटाना, दूरसंचार नियामक प्राधिकरण द्वारा एंट्री शुल्क में परिवर्तन की सिफारिशें आदि।’ सीबीआई का आरोप था कि 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंसों के आवंटन में 30,984 करोड रुपये के राजस्व का नुकसान हुआ। आरोप पत्रों में गलत तथ्यों की वजह का सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है लेकिन यह वह दौर था जब एपी सिंह सीबीआई के निदेशक थे और अब उनके खिलाफ सीबीआई ही भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रही है। यही नहीं, उनके उत्तराधिकारी रंजीत सिन्हा पर भी 2जी मामले के आरोपियों से मुलकात के आरोप लगे और अब उनके खिलाफ भी सीबीआई की ही जांच चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने ही मुकदमे की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए अभियोजन की ओर से पैरवी करने वरिष्ठ वकील उदय यू ललित को विशेष लोक अभियोजन नियुक्त किया था। बाद में ललित के सुप्रीम कोर्ट का जज बनने के बाद शीर्ष अदालत ने 12 अगस्त, 2014 को सीबीआई की ओर से बहस करने वाले वरिष्ठ वकील (वर्तमान अटार्नी जनरल) के के वेणुगोपाल से कहा था कि वह सीलबंद लिफाफे में नामों की सिफारिश करें। वेणुगोपाल ने आनंद ग्रोवर के नाम की सिफारिश की जिसे सितंबर, 2014 में न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।

एक तर्क दिया जा रहा है कि यदि सीबीआई के आरोप पत्रों मे कुछ कमियां थीं तो नई सरकार बनने के बाद पूरक आरोप पत्र दाखिल किए जा सकते थे। इसी तरह, यदि ग्रोवर के बारे में कुछ शंका थी तो इसे भी शीर्ष अदालत के संज्ञान में लाया जा सकता था। यदि राजग सरकार इस तरह के कदम उठाती तो उस पर मुकदमे की सुनवाई में विलंब करने के आरोप लगने शुरू हो जाते। आनंद ग्रोवर की नियुक्ति से संबंधित अधिसूचना जारी होने में विलंब को लेकर पहले ही सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को आड़े हाथ ले चुका था। ऐसी स्थिति में आनंद ग्रोवर के स्थान पर कोई नया विशेष लोक अभियोजक बनाने के बारे में सोचना भी उचित नहीं था क्योंकि नए लोक अभियोजक को भी सारे दस्तावेज पढ़ने के लिए समय की आवश्यकता होती और इससे मुकदमे की सुनवाई लटकी रहती।

इस मुकदमे में अभियोजन पक्ष के वकीलों विशेष कर विशेष लोक अभियोजक आनंद ग्रोवर की भूमिका पर भी अदालत ने तल्ख टिप्पणी की है। अदालत ने कहा कि इस मामले में अभियोजन की गुणवत्ता पूरी तरह खराब थी और मुकदमे की सुनवाई के अंत तक पहुंचते समय यह दिशाहीन हो गई थी। विशेष न्यायाधीश ने कहा कि जांच ब्यूरो ने मुकदमे में सुनवाई की शुरुआत बहुत ही उत्साह के साथ की थी। लेकिन इस मुकदमे की सुनवाई में प्रगति के साथ ही अभियोजन का रवैया बहुत ही चौकन्ना रहने वाला हो गया जिस वजह से यह पता लगाना मुश्किल हो रहा था कि आखिर अभियोजन क्या साबित करना चाहता है। यही नहीं, सुनवाई के अंतिम चरण में विशेष लोक अभियोजक ग्रोवर और सीबीआई के नियमित अभियोजक बगैर किसी तालमेल के दो अलग-अलग दिशाओं में चले गए।

अदालत ने सीबीआई और उसके विशेष लोक अभियोजक के इस आचरण पर भी कड़ी आपत्ति जताई कि उनकी ओर से अनेक आवेदन और जवाब दाखिल किए गए परंतु सुनवाई के अंतिम चरण में कोई भी वरिष्ठ अधिकारी या अभियोजक उन दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार नहीं था। उन दस्तावेजों पर अंतत: अदालत में तैनात ब्यूरो के इंस्पेक्टर रैंक के जूनियर अधिकारी ने हस्ताक्षर किए। सैनी ने इस बात का भी जिक्र किया है कि जब इस बारे में सवाल किया गया तो जांच एजेंसी के नियमित वरिष्ठ लोक अभियोजक ने कहा कि हस्ताक्षर विशेष लोक अभियोजक करेंगे और जब विशेष लोक अभियोजक से पूछा तो उन्होंने कहा कि जांच एजेंसी के लोग हस्ताक्षर करेंगे। यह रवैया दर्शाता है कि अदालत में जो कुछ भी पेश किया जा रहा था उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए न तो जांच अधिकारी और न ही कोई अभियोजक तैयार थे। ग्रोवर के रवैये पर टिप्पणी करते हुए सैनी ने फैसले में यह भी लिखा कि जब मुकदमें मे अंतमि चरण की बहस शुरू हुई तो विशेष लोक अभियोजक ने कहा था कि वह लिखित में दलीलें देंगे परंतु बाद में उन्होंने मौखिक ही बहस शुरू कर दी जो कई महीने चली। अभियोजन की ओर से अंतिम बहस समाप्त होने पर भी ग्रोवर ने लिखित दलीलें पेश नहीं की और कहा कि वह तभी दायर करेंगे जब बचाव पक्ष लिखित दलीलें देंगा। यह बहुत ही अनुचित था। बचाव पक्ष की बहस पूरी होने के बाद जब अभियोजन ने जवाब देना शुरू किया जो विशेष लोक अभियोजक अदालत में दिए गए अपने लिखित कथन पर भी हस्ताक्षर करने के लिए तैयार नहीं थे।

अदालत के फैसले में विशेष लोक अभियोजक के रवैये के बारे में की गई टिप्पणियों से सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? वह क्यों संकोच कर रहे थे? इन्हीं पहलुओं की वजह से ग्रोवर को विशेष लोक अभियोजक नियुक्त करने के औचित्य पर सवाल उठना स्वाभाविक है। आनंद ग्रोवर को आपराधिक कानूनों में दक्षता की बजाय एचआईवी और एड्स तथा समलैंगिकों को समान अधिकार दिलाने जैसे मुद्दों पर अधिक सक्रिय विधिवेत्ता के रूप में जाना जाता है। तो फिर यह सवाल भी उठ सकता है कि उन्हें यह जिम्मेदारी क्यों और कैसे सौंपी गई?

फिलहाल 2जी स्पेक्ट्रम मामले में विशेष अदालत के इस फैसले ने सत्तारूढ दल और विपक्ष को एक दूसरे पर हमला करने और आरोप-प्रत्यारोप लगाकर राजनीतिक लाभ उठाने के प्रयास करने के लिए काफी सामग्री उपलब्ध करा दी है। लेकिन देखना यह है कि हाई कोर्ट में अपील दायर होने की स्थिति में जांच ब्यूरो और प्रवर्तन निदेशालय विशेष अदालत के फैसले में किस तरह की खामियों को उजागर करते हैं और इन पर कब सुनवाई शुरू होती है। लेकिन इतना निश्चित है कि ये प्रकरण अभी खत्म नहीं होगा और इसमें निरंतर कुछ न कुछ नए बिंदु सामने आते रहेंगे।