जवाहरलाल कौल।

अटल बिहारी वाजपेयी स्वतंत्र भारत के एक ऐसे राजनेता थे जो राजनीति के सामान्य दायरे में समा नहीं सकते थे क्योंकि आज जो राजनीति का स्वरूप बन गया है वह लेनदेन या सौदेबाजी का है। राजनीति भी एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें नफा नुक्सान का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस तरह के बाजारवाद में नैतिकता या आदर्श गायब हो जाते हैं। अटल जी ऐसे राजनेता थे जो राजनीति को केवल व्यवहार का व्यापार नहीं मानते थे। जिनका मानना था कि संस्कार और आदर्श इसकी जान हैं, आत्मा हैं। बिना आत्मा के कोई भी व्यापार केवल स्वार्थ से प्रेरित हो सकता है परमार्थ से नहीं। दावा तो हम यही करते हैं कि हम राजनीति में जनसेवा के उद्देश्य से आते हैं। जनता और समाज का उत्थान ही हमारा लक्ष्य है। लेकिन व्यवहार में जितने भी काम होते हैं उनमें व्यक्तिगत स्वार्थ सबसे ऊपर रहता है। अटल जी सभी बातों को मन से आंकते थे केवल बुद्धि से नहीं। इसलिए जो भी काम उन्होंने किया, जिस प्रकार की नीतियां भी उन्होंने अपनार्इं उनमें दूसरों के मन को जीतना उनका लक्ष्य था। वह चाहे विदेशनीति का मामला हो, देश की सुरक्षा का मामला हो या अपने ही देश के किसी हिस्से में शांति स्थापना की समस्या हो। अटल जी मानते थे कि जब तक हम जनता का मन नहीं जीतते तब तक कोई स्थायी हल निकलना संभव नहीं है।

वह जानते थे कि पाकिस्तान का हमारे प्रति क्या रुझान है। वह यह भी जानते थे कि पाकिस्तान का जन्म ही भारत विरोध से हुआ है। फिर भी उनका कहना था कि मित्र बदले जा सकते हैं लेकिन पड़ोसी तो स्थाई रूप से पास ही रहेगा। इसलिए अच्छा यही है कि पड़ोसी भी मित्र बन जाए। तभी स्थायी शांति हो पाएगी। इसी कारण से उन्होंने जोखिम लेते हुए भी पाकिस्तान के प्रति मित्रता का हाथ बढ़ाया और दो कदम आगे जाकर वह पाकिस्तान गए। इसी उम्मीद में कि शायद पाकिस्तानियों को भी यह समझ में आ जाए कि स्थाई शत्रुता से उनका भी कोई फायदा नहीं होगा। यह अलग बात है कि पाकिस्तान के नेता उस समय अटल जी के इस मित्रतापूर्ण व्यवहार को नहीं समझ पाए। और उनके आपसी टकराव के कारण एक धड़ा तो अटल जी के साथ था जबकि दूसरा चोरी छिपे भारत पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था… और हमें करगिल का युद्ध भोगना पड़ा।

इसी प्रकार जम्मू कश्मीर में उन्होंने एक नीति बना रखी थी। उसका मतलब था कश्मीरियत, जम्हूरियत और इन्सानियत। जब वह कश्मीरियत की बात करते थे तो उसका मतलब क्या था? कश्मीर में जो विभिन्न संप्रदायों के संत मनीषी हुए और उन्होंने जो रास्ता दिखाया उसे वे कश्मीरियत कहते थे। इस तरह समझें कि जो ऋषि परंपरा वहां मुसलमान संतों ने स्थापित की थी और जो संतवाणी वहां हिन्दू कश्मीरी संतों ने प्रस्तुत की थी- उससे मिली जुली जो संस्कृति पैदा हुई थी उसको अटल जी कश्मीरियत कहते थे। अगर कश्मीरियों को अपनी कोई बात कहनी है तो उसकी उनकी अपनी संस्कृति है, उसको बढ़ावा दिया जाना चाहिए। एक दूसरे से नफरत करने की कोई संस्कृति नहीं होती। अटल जी का दूसरा तर्क था जम्हूरियत। जम्हूरियत का मतलब है लोकतंत्र। यह सच है कि जबसे देश को आजादी मिली जम्मू कश्मीर में तब से आज तक सही मायने में लोकतंत्र स्थापित हुआ ही नहीं। वहां भी एक तरह का वंशवाद ही चला। वहां भी एक छोटे वर्ग के हाथ में हर वक्त सत्ता रही। और बड़ा वर्ग वैसे ही भटकता रहा गरीबी में मुफलिसी में। और इस तरह वह चाहते थे कि कश्मीर में सही मायने में लोकतंत्र हो जिसका लाभ सबसे नीचे के लोगों को, किसानों मजदूरों को हो। न कि केवल बड़े व्यापारियों और बड़े खानदानों को, वगैरह। …और इस तरह जो व्यवहार हो वह इन्सानियत/ मानवता के आधार पर हो। दीनदयाल जी के मानववाद पर वह विश्वास करते थे। इन तीनों सिद्धांतों के आधार पर उन्होंने जम्मू कश्मीर में नई शांति व्यवस्था स्थापित करने का अपना प्रयास किया। उसका फल भी मिला। भले ही कश्मीर की समस्या का कोई हल न हुआ हो लेकिन इन प्रयासों से एक बड़ा वर्ग ऐसा पैदा हुआ जो आज भी अटल जी का सम्मान करता है। अगर कोई भी भारतीय नेता जम्मू कश्मीर में लोगों के मन को अपील करता है तो वह अटल बिहारी वाजपेयी थे।

इस तरह का जो नेता होता है वह अपने समय से आगे देखता है। अपने युग से परे देखता है क्योंकि वह केवल आज की बात नहीं सोचता। बाजार में बैठा हुआ व्यापारी आज की बात सोचता है। आज कितना कमाया आज कितना नफा हो जाए आज कितनी बिक्री हो। लेकिन जो दूरंदेशी राजनेता होता है वह कल की भी बात सोचता है। वह जो योजनाएं बनाता है उनका असर कल भी होता है या परसों भी होता है। इसलिए अटल जी की बहुत सारी नीतियां ऐसी रही हैं जो आज की परिस्थितियों के हिसाब से बनाई गर्इं लेकिन जिनका असर कल पूरे देश के लिए अच्छा होगा। जैसे पूरे देश में सड़कों के एक जाल बिछाना उनकी कल्पना थी। उन्होंने उस कल्पना को कार्यरूप में लाने का काम करना शुरू कर दिया था। सड़कें बननी शुरू हो गई थीं। लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल में उसका एक अंश ही पूरा हुआ था। राजमार्गांे के उस जाल का तुरंत राजनीतिक फायदा उन्हें नहीं मिला। वह जानते थे कि उसका तुरंत फायदा उन्हें नहीं मिलेगा क्योंकि योजना लंबी दूरी की है। ये कल की है। उनके सत्ता से हट जाने के बाद उसका फल निकलना शुरू हुआ। आज अगर पूरे देश में सड़कों का जाल बिछा हुआ है तो उन्हीं की कल्पना के कारण। लेकिन जो शुद्ध रूप से राजनीतिक होता है वह कल के झंझट में पड़ता ही नहीं। उसका पूरा ध्यान इसी पर होता है कि आज किस चीज से मुझे, मेरी पार्टी को, मेरे वर्ग को फायदा हो जाए। उस तरह के राजनीतिक वह नहीं थे। वह एक राजनीतिज्ञ थे, एक स्टेट्समैन थे जो राष्टÑ को काफी आगे ले जाने की बात सोचता है- आज के लिए कल को नजरअंदाज नहीं करता है- जो कल को परसों पर टालने की कोशिश नहीं करता, चाहे उससे उसे, उसके दल को, उसके व्यक्ति को फायदा हो या न हो।
इस तरह के राजनेता राजनीति में मानक स्थापित करते हैं। उन मानकों पर अगर अभी भी चलना शुरू कर दें तो देश एक सही रास्ते पर सही प्रगति और विकास के रास्ते पर चल पड़ता है। अन्यथा होता यह कि सरकार आती है जाती है, प्रधानमंत्री आते हैं और सब चले जाते हैं वे सब यथास्थितिवाद पर चलते रहते हैं। जैसी समस्या आ जाए वैसा निपट लिया और आगे बढ़ गए। और वह समस्या उसी जगह पर रहती है और दोबारा उठती है। और देश लगभग एक ठहराव की स्थिति में आ जाता है।

एक महत्वपूर्ण बात जो मैंने अटल जी में देखी वह जब बात करते थे तो एक संवाद होता था। अपनी बात थोपने के लिए वह बात नहीं करते थे। एकतरफा बात नहीं करते थे। वह बात करते थे आपको भी बोलने देते थे और जैसे दो मित्र बात करते हैं वैसे ही बात करते थे। जिसका नतीजा होता है कि दूसरे पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है। मैं रिपोर्टिंग करता था उन दिनों। मेरे साथ कई ऐसी घटनाएं हुई हैं कि उस जमाने में ही मुझे लग रहा था कि यह व्यक्ति और राजनीतिकों से कितना अलग है। मैं आतंकवाद कवर करने के सिलसिले में जम्मू कश्मीर गया था। मेरे गांव से कुछ दूर एक जगह है मानसबल, उस क्षेत्र का वह बहुत बड़ा आतंकवादी सरगना था। श्रीनगर से नीचे डल झील की तरह एक और झील है जिसका नाम है मानसबल। उसका नाम था कुका परे। चूंकि वह मेरे गांव का था इसलिए मैं आसानी से उस तक पहुंच पाया। बातचीत के दौरान वह अटल जी का जिक्र करते हुए उनकी तारीफ करने लगा। अटल जी तब प्रधानमंत्री थे। मैंने उससे पूछा कि जितने आतंकवादी हैं, अलगाववादी हैं वे सब भारत विरोधी बातें करते हैं किंतु आप अटल जी के इतने मुरीद कैसे हो गए? आपने ऐसा उनमें क्या देखा? तो उसने कहा कि ‘मुझे पता नहीं। मैं सही तरीके से नहीं कह सकता कि उनमें क्या देखा। मगर मुझे उनके चेहरे पर एक ईमानदारी झांकती हुई सी नजर आती है। ऐसा लगता है जैसे कोई बालक बात कर रहा हो। बालपन की सादगी उनके चेहरे पर थी।’ …तो यह कोई राजनीतिक का जवाब नहीं था- यह कोई दार्शनिक का भी जवाब नहीं था- यह सहज रूप से आया एक ऐसे व्यक्ति का जवाब था जो बहुत ज्यादा पढ़ा लिखा न भी हो, जिसका व्यवसाय भी कोई बहुत अच्छा न हो, तो भी वह समझ जाता है कि दूसरा आदमी कितना अच्छा है- भला है। उसमें उसके प्रति एक आदरभाव पैदा होता है। अटल जी अगर एक आतंकवादी पर इतना असर डाल सकते थे तो सामान्य लोगों पर भी वह इसी तरह का असर डालते थे।

अब जैसे कश्मीर में एक बड़ा वर्ग है जो अटल जी की बात करता है। लेकिन उससे भी बड़ा वर्ग है जो अटल जी से नफरत करता है। क्योंकि उसे लगता है कि यह आदमी ज्यादा खतरनाक है बनिस्बत किसी और के। जो छोटे लोग कभी तारीफ करते हैं, कभी लड़ते हैं झगड़ते हैं- ऐसे लोगों से वे ज्यादा डरते नहीं क्योंकि वे खुद भी वैसे ही हैं। लेकिन एक आदमी ईमानदार है और ईमानदार आदमी से दुश्मन ज्यादा डरता है।
अटल जी की दूसरी विशेषता थी कि जितना वह कवि हृदय थे उतना ही उनके भीतर एक शौर्य था। वह शूरवीर जैसे दिखे। जब उनको लगता था कि उनके सामने एक चुनौती है तो उस चुनौती से भागने की उनकी प्रवृत्ति नहीं रहती थी- उससे बचने की प्रवृत्ति नहीं रहती थी- बल्कि उससे टकराने की प्रवृत्ति रहती थी। कोशिश तो वह यही करते थे कि इस चुनौती से बातचीत से, संवाद से निपटा जाए। लेकिन जब उनको लगता था कि चुनौती इस तरह नहीं हटेगी तो वह टकराने के लिए भी तैयार रहते थे।

तीसरी बड़ी बात यह थी कि दूसरों के गुण पहचानकर उनकी तारीफ करने में यह हिचकिचाते नहीं थे। आज की राजनीति इतनी कटुता में चल रही है कि एक दूसरे की प्रशंसा करना लोग भूल चुके हैं। जब मैं पहली बार दिल्ली आया और रिपोर्टर बना तो मेरे संपादक ने मुझे राज्यसभा कवर करने के लिए भेजा। उन दिनों पहली बार अटल जी राज्यसभा के सदस्य बनाए गए थे। उस वक्त राज्यसभा में बहुत धुरंधर प्रकार के राजनेता हुआ करते थे- भूपेश गुप्ता, अन्नादुरई, हीरेन मुखर्जी जैसे प्रखर वक्ता और नेता उस सदन में थे। हिन्दी विरोध का एक प्रश्न था राज्यसभा में। डीएमके के जनक अन्नादुरई घोर हिंदी विरोधी और उत्तर भारत विरोधी माने जाते थे। वह भी सदन में थे। अटल जी को पहले मौका मिला अपनी बात रखने का। उन्होंने बड़े सलीके के साथ पहले यह कहते हुए कि ‘मैं नया हूं, छोटा हूं, मैं उतना नहीं जानता जितना आप जानते हैं मैं तो आपसे गाइडेंस लेने के लिए यहां खड़ा हुआ हूं’ सबका अभिवादन किया और जिस प्रकार बड़े लोगों का सम्मान किया जाता है अटल जी ने सभी सदस्यों का किया। फिर अपनी बात कह दी। फिर अन्नादुरई खड़े हो गए और कहा कि ‘मुझे सब लोग कहते हैं कि यह हिंदी विरोधी है, उत्तर विरोधी है, लेकिन आप मुझे बताइए कि अभी ये जो नौजवान बोल रहा था, जिस भाषा में बोल रहा था, जिस शैली में बोल रहा था, जिस सलीके से बोल रहा था- उसके बाद मैं उसका विरोध कर सकता हूं?’ अटल जी ने जब अपनी बात खत्म की तो सदन में खूब तालियां बजीं। अपनी वाकपटुता, व्यंग्य विनोद के लहजे, नम्र स्वभाव और कवि हृदय से अपने घोर विरोधी को निरस्त्र करने की क्षमता अटल जी में पहले दिन मैंने महसूस की।

तो अटल जी में अपने विरोधी की भी प्रशंसा करने की अद्भुत क्षमता थी। जब 1971 में बांग्लादेश की लड़ाई में हम जीते तो उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तारीफ करने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। ऐसा वही कर सकता है जिसके अंदर साहस है। जो दूसरे अच्छे आदमी से डरता नहीं। इस तरह के राजनीतिक अब हमारे बीच नहीं रहे हैं।

हममें से कोई अटल बिहारी वाजपेयी नहीं बन सकता। वह स्वाभाविक रूप में एक प्रकृति, एक प्रवृत्ति होती है जिसकी वजह से ये सब चीजें किसी व्यक्ति में होती हैं। बल्कि सच तो यह है कि कोई एक राजनेता दूसरे राजनीतिक की नकल करके वैसा नहीं बन सकता। सब अपने परिवेश में अपनी अलग तरह की परिस्थितियों में जीते हैं। अटल जी के सामने जो परिस्थितियां थीं वह नरेंद्र मोदी जी के सामने नहीं हैं। या मोदी जी के सामने जो नई परिस्थितियां पैदा हो गई हैं वो अटल जी के जमाने में नहीं थीं। तो इसलिए तुलना नहीं करनी चाहिए। तुलना करना संभव ही नहीं है। तुलना तो जवाहरलाल नेहरू और उनकी बेटी इंदिरा में भी नहीं की जा सकती। दोनों का स्वभाव बिल्कुल अलग था और जीवनभर अलग रहा। दोनों की नीतियां और दृष्टिकोण अलग रहा। इसलिए अटल जी तो आदर्श रहेंगे ही और उनके आदर्श को हम कहां तक अपनाएं यह हमारे ऊपर निर्भर करता है। लेकिन दो व्यक्तियों की तुलना करना, उनमें समानता खोजना या उनमें विभिन्नता खोजना व्यर्थ की बात है और समझ से परे है।