अनूप भटनागर

गौमांस का सेवन करने के संदेह में उत्तर प्रदेश के दादरी के बिसहड़ा गांव में सितंबर 2015 में मोहम्मद अखलाक की उग्र भीड़ द्वारा कथित रूप से पीट-पीट कर हत्या करने की घटना से लेकर जुलाई 2018 में राजस्थान के अलवर जिले में गौ तस्करी के संदेह में रकबर खान की कथित रूप से पिटाई की वजह से हत्या की घटनाओं ने देश की राजनीति को गरमा दिया है। देश में भीड़तंत्र की बढ़ती हिंसक गतिविधियों और गौरक्षा के नाम पर लोगों की पीट कर हत्या करने जैसी घटनाओं को लेकर इस समय ऐसा कोहराम मचा हुआ है कि मानो इसके अलावा अब और कोई मुद्दा ही नहीं है। इस तरह की घटनाओं पर कड़ा रुख अपनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को इन पर काबू पाने के लिए अनेक निर्देश दिए हैं। इनमें ऐसे अपराध में तुरंत प्राथमिकी दर्ज करना और त्वरित अदालतों में इनसे संबंधित मुकदमों की छह महीने के भीतर सुनवाई पूरी करना भी शामिल है। लेकिन न्यायालय के 17 जुलाई के सख्त निर्देशों के एक सप्ताह के भीतर ही राजस्थान के अलवर जिले में ऐसी ही घटना हो गई। न्यायिक व्यवस्थाओं के बावजूद इस तरह की घटना होना चिंताजनक है।
शीर्ष अदालत ने जहां संसद से भीड़ की हिंसा रोकने के लिए उचित कानून बनाने पर विचार करने का अनुरोध किया है, वहीं उसने यह भी स्पष्ट किया है कि लोकतंत्र में भीड़तंत्र कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। न्यायालय ने बेहद सख्त लहजे में कहा है कि इस तरह की घटनाओं को सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती और उसे सख्त कार्रवाई करनी होगी। इस संबंध में न्यायालय ने राज्य सरकारों और प्रशासन को अनेक निर्देश भी दिए हैं। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने भी ऐसी घटनाओं से सख्ती से निपटने के लिए कानून बनाने के प्रस्ताव पर सहमति जताई है। इस संबंध में सात सदस्यीय मंत्री समूह का गठन भी कर दिया है।
राजस्थान के अलवर जिले में गौ तस्करी के संदेह में एक समूह द्वारा एक व्यक्ति की पीट कर हत्या की वारदात ने निश्चित ही राज्य सरकार और उसकी कानून व्यवस्था बनाए रखने वाली एजेंसियों की कार्यशैली पर सवाल खड़े कर दिए। बताया जा रहा है कि इस वारदात के बाद पुलिस जख्मी व्यक्ति को अस्पताल ले जाने की बजाय थाने ले गई। उस व्यक्ति को करीब दो घंटे बाद जब पुलिस अस्पताल लेकर पहुंची तो उस समय तक उसकी मृत्यु हो चुकी थी। संसद में जबर्दस्त आक्रोश व्यक्त किए जाने को देखते हुए राजस्थान सरकार ने हालांकि अब इस घटना की न्यायिक जांच का आदेश दे दिया है लेकिन पुलिस के रवैये ने वसुंधरा सरकार की देश ही नहीं दुनिया में भी किरकिरी करा दी। इस घटना के अगले ही दिन यह मामला अवमानना याचिका की शक्ल में शीर्ष अदालत के संज्ञान में लाया गया जिस पर 28 अगस्त को सुनवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट के सख्त रुख के बाद केंद्र सरकार भी इन घटनाओं पर अंकुश पाने के लिए पहले से ज्यादा सक्रिय हुई है और उसने गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में एक मंत्री समूह गठित किया है तो दूसरी ओर गृह सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति बनाई है जिसे एक पखवाड़े के भीतर अपनी रिपोर्ट देनी है।
प्रस्तावित कानून के लिए सुझाव आमंत्रित करने और उन पर विचार के लिए गठित सात सदस्यीय मंत्री समूह में गृह मंत्री राजनाथ सिंह के अलावा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी और कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद शामिल हैं। दरअसल, भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने और गौ रक्षा के नाम पर लोगों को पीट कर मार डालने की बढ़ती घटनाओं से सख्ती से निपटने के लिए इसके सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि सूचना क्रांति के इस दौर में तत्काल ही न्यायिक आदेशों की जानकारी दूरदराज तक पहुंचने के बावजूद पुलिस, प्रशासन और खुफिया तंत्र भीड़तंत्र की गतिविधियों के प्रति कैसे अनभिज्ञ बना रहा और पुलिस ने तत्परता से कार्रवाई क्यों नहीं की।
यह समय भीड़ द्वारा हिंसा करने या गौ रक्षा के नाम पर पीट-पीट कर हत्या करने के मुद्दे को लेकर राजनीति करने का नहीं बल्कि शांति से बैठकर इससे निपटने के उपाय खोजने का है। इसमें राजनीति का प्रवेश होते ही भाजपा और उसके कुछ संगठनों के नेताओं ने 1984 के दंगे, गोधरा कांड, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा तथा दूसरे राज्यों में महिलाओं पर काला जादू करने के संदेह में किसी महिला की पीट कर हत्या करने और बच्चा चोरी करने के संदेह में बेगुनाहों को पीट कर मार डालने के मुद्दों को उठाने का प्रयास किया। भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने और गौ रक्षा के नाम पर असामाजिक तत्वों द्वारा किसी व्यक्ति को पीट-पीट कर मार देने की घटनाओं को लेकर महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी और कांग्रेस नेता तहसीन पूनावाला सहित कई लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। इन याचिकाओं में केंद्र सरकार के साथ ही गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और कर्नाटक को प्रतिवादी बनाया गया था। स्वयं को सामाजिक कार्यकर्ता बताने वाले एक याचिकाकर्ता ने छह राज्यों को गौ रक्षा के नाम पर हिंसा करने वाले समूहों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई करने और सोशल मीडिया से इससे संबंधित हिंसक तथ्यों को हटाने का अनुरोध किया था।
याचिका में गुजरात पशु संरक्षण कानून, 1954 की धारा 12, महाराष्ट्र पशु संरक्षण कानून, 1976 की धारा 13 और 15, कर्नाटक गौ वध रोकथाम और पशु संरक्षण कानून, 1964 की धारा 13 को असंवैधानिक घोषित करने का भी अनुरोध किया गया था। लेकिन न्यायालय ने इन कानूनों के चुनिंदा प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित करने के अनुरोध पर विचार नहीं किया। न्यायालय ने अपने 45 पन्ने के फैसले में भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने और गौ रक्षा के नाम पर निर्दोष की पीट कर हत्या को बहुत ही घिनौना अपराध करार दिया। इस तरह की घटनाओं को लेकर न्यायालय के हस्तक्षेप से पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गौ रक्षा के नाम पर होने वाली हत्याओं पर चिंता ही नहीं व्यक्त की थी बल्कि दो टूक शब्दों में कहा था कि गौ भक्ति के नाम पर लोगों की हत्या स्वीकार्य नहीं है। राज्य सरकारों को ऐसे मामलों में तत्काल सख्त कार्रवाई करने का निर्देश देते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि हमारे समाज में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके बाद भी ऐसी घटनाएं होती रहीं। शीर्ष अदालत ने 21 जुलाई, 2017 को जब इन याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की तो केंद्र की ओर से तत्कालीन सॉलिसिटर जनरल रंजीत कुमार ने कहा कि केंद्र सरकार इस तरह की गतिविधियों का समर्थन नहीं करती है। इन विवादों का संबंध राज्यों से है और कानून व्यवस्था राज्य सरकार का काम है।
शीर्ष अदालत ने अपने निर्णय में कहा कि नागरिकों को अधिकार प्रदान करके समाज के लाभ और भांति-भांति की परिस्थिति में समाज के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाए जाते हैं। इन्हें लागू करना कानून पर अमल करने वाली एजेंसियों का कर्तव्य है। कानून को सभ्य समाज की बुनियाद माना जाता है। इसका प्रमुख लक्ष्य समाज में व्यवस्था बनाए रखना है। न्यायालय ने कहा कि कानून के महत्व को सिर्फ इसलिए कमतर नहीं किया जा सकता क्योंकि किसी व्यक्ति या समूह ने यह रवैया अख्तियार कर लिया है कि कानून में प्रदत्त सिद्धांतों ने उन्हें इन्हें लागू करने का अधिकार अपने हाथ में लेने और धीरे-धीरे खुद में ही कानून बन जाने और उनके फरमानों को नहीं मानने वालों को दंडित करने का अधिकार दिया है। लेकिन ऐसा करने वाले यह भूल जाते हैं कि कानून का प्रशासन इसे लागू करने वाली एजेंसियों को सौंपा गया है। किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने की अनुमति नहीं है। यह ठीक उसी तरह है जैसे एक व्यक्ति कानून में अपने अधिकारों के लिए लड़ाई का हकदार है तो दूसरा उस समय तक निर्दोष माने जाने का हकदार है जब तक निष्पक्ष सुनवाई के बाद उसे दोषी नहीं ठहरा दिया जाता है। इन याचिकाओं में उठाए गए विभिन्न मुद्दों के तमाम पहलुओं पर विचार के बाद न्यायालय ने अपने फैसले में एहतियाती उपाय, उपचारात्मक उपाय और दण्डात्मक उपाय करने के विस्तृत निर्देश राज्य सरकारों को दिए।
एहतियाती उपाय : इसके तहत राज्य सरकारों को प्रदेश के प्रत्येक जिले में पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी को नोडल अधिकारी बनाने का निर्देश दिया गया है। नोडल अधिकारी की मदद पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारी करेंगे। यही नहीं, इस तरह की घटनाओं में संलिप्त होने की संभावना वाले समूहों के बारे में खुफिया जानकारी प्राप्त करने के लिए विशेष कार्यबल गठित करने और नोडल अधिकारी को अपने जिले के थाना प्रभारियों और खुफिया इकाई के साथ महीने में कम से कम एक बैठक करके गौ रक्षकों, उग्र भीड़ या पीट कर मार डालने की प्रवृत्ति वाले तत्वों की पहचान करने का भी निर्देश दिया है। सोशल मीडिया या किसी भी अन्य तरीके से उत्तेजना पैदा करने वाली सामग्री को संप्रेषित होने से रोकने के लिए पुलिस को उचित कदम उठाने का भी निर्देश दिया गया है। राज्य के पुलिस महानिदेशक और गृह सचिव को राज्य के सभी नोडल अधिकारियों और राज्य पुलिस की खुफिया प्रमुखों के साथ तीन महीने में एक बार बैठक करके स्थिति की समीक्षा करनी जरूरी है।
इस तरह की घटनाओं पर अंकुश के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय को पहल करनी होगी और उसे राज्य सरकारों के साथ तालमेल करके कानून लागू करने वाली सभी एजेंसियों को संवेदनशील बनाना होगा। भीड़ की हिंसा और लोगों को पीट कर मारने जैसी घटनाओं की रोकथाम के उपायों की पहचान करके सामाजिक न्याय और कानून के शासन को लागू करना होगा। इस व्यवस्था में कहा गया है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारों का यह कर्तव्य है कि सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों पर ऐसे विस्फोटक संदेश, वीडियो और दूसरी तरह की सामग्री को संप्रेषित होने से रोकने के उपाय करे जिनसे भीड़ द्वारा हिंसा करने या फिर किसी को पीट-पीट कर मार डालने जैसा अपराध करने की प्रवृत्ति, उत्तेजना पैदा करने या फिर हिंसा के लिए उकसाने की संभावना वाले संदेश संप्रेषित करने वालों के खिलाफ पुलिस को भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए और अन्य उचित प्रावधानों के तहत प्राथमिकी दर्ज करनी होगी।
उपचारात्मक उपाय : राज्य पुलिस द्वारा एहतियाती कदम उठाए जाने के बावजूद यदि स्थानीय पुलिस की जानकारी में किसी को पीट कर मार डालने या भीड़ द्वारा हिंसा करने की घटना आती है तो उस क्षेत्र के थाना प्रभारी भारतीय दंड संहिता के संबंधित प्रावधानों के तहत बगैर किसी विलंब के प्राथमिकी दर्ज करके अपने जिले के नोडल अधिकारी को सूचित करेंगे जो यह सुनिश्चित करेंगे कि पीड़ित परिवार को अनावश्यक परेशान नहीं किया जाए। नोडल अधिकारी को इस तरह के अपराध की जांच की व्यक्तिगत रूप से निगरानी करनी होगी। वह यह सुनिश्ति करेंगे की प्राथमिकी दर्ज होने या आरोपी की गिरफ्तारी की तारीख से कानून में निर्धारित समयावधि के भीतर आरोप पत्र दाखिल हो। इस तरह की घटनाओं से पीड़ित परिवार को उचित मुआवजा दिलाने के उद्देश्य से न्यायालय ने राज्य सरकारों को इस निर्णय की तारीख से एक महीने के भीतर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 357ए के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए लिंचिंग और भीड़ की हिंसा पीड़ित मुआवजा योजना तैयार करने का निर्देश दिया है। राज्य सरकार को इस योजना के तहत मुआवजे का निर्धारण करते समय शरीर पर हुए जख्मों के स्वरूप, मनोवैज्ञानिक जख्म, रोजगार के अवसर सहित आजीविका का नुकसान और शिक्षा व इस हादसे की वजह से मेडिकल और कानूनी खर्चों को भी ध्यान में रखना होगा। पीड़ित परिवार को तीस दिन के भीतर अंतरिम मुआवजा देने की भी व्यवस्था करने का निर्देश दिया गया है।
पीट कर हत्या करने या भीड़ की हिंसा की घटनाओं से निपटने और दोषियों के लिए यथाशीघ्र सजा सुनिश्चित करने के इरादे से न्यायालय ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि ऐसे अपराधों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई के लिए प्रत्येक जिले में विशेष या त्वरित अदालतें होंगी। ये अदालतें दैनिक आधार पर इन मुकदमों की सुनवाई करेंगी और मामले का संज्ञान लेने की तारीख से यथासंभव छह महीने के भीतर इसे पूरा किया जाएगा। यह निर्देश पहले से लंबित मुकदमों पर भी लागू होगा। राज्य सरकार और नोडल अधिकारी का यह कर्तव्य होगा कि वे ऐसे मुकदमों का तेजी से निपटारा सुनिश्चित करें। भीड़ की हिंसा और पीट कर हत्या के अपराध के मामलों में एक नजीर पेश करने के लिए निचली अदालतों को यथासंभव संबंधित कानूनों के प्रावधानों के अंतर्गत अधिकतम सजा देनी चाहिए। ऐसे मुकदमों के गवाहों और पीड़ित परिवार के सदस्यों को संरक्षण प्रदान करने और उनकी पहचान गोपनीय रखने के लिए उचित कदम उठाए जाएंगे। पीड़ित परिवार को राज्य विधिक सहायता प्राधिकरण से मुफ्त कानूनी सहायता दी जाएगी।
दंडात्मक उपाय : सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी घटनाओं के प्रति ढुलमुल रवैया अपनाने या इन निर्देशों का पालन करने में विफल रहने वाले पुलिस अधिकारियों और जिला प्रशासन के अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई के बारे में भी विस्तृत निर्देश दिए हैं। ऐसी घटनाओं को रोकने या जांच करने या इन अपराधों के मुकदमों की तेजी से सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय के निर्देशों का पालन नहीं करने को जानबूझकर लापरवाही का कृत्य और कदाचार माना जाएगा। ऐसे मामले में राज्य सरकार की ओर से उचित कार्रवाई की जानी चाहिए। ऐसे अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई विभागीय कार्रवाई तक सीमित नहीं रहेगी। विभागीय प्राधिकारी को छह महीने के भीतर इसे अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचाना होगा। केंद्र और राज्य सरकारों को चार सप्ताह के भीतर इन निर्देशों का पालन करके न्यायालय की रजिस्ट्री में अनुपालन रिपोर्ट भी पेश करनी है।
शीर्ष अदालत के फैसले और कठोर रुख के बाद उम्मीद है कि राज्यों में पुलिस और प्रशासन पिछले अनुभवों के आधार पर अधिक सतर्कता बरतेगा और यह प्रयास करेगा कि इन अपराधों की पुनरावृत्ति नहीं हो। 