अभिषेक रंजन सिंह
पुरुलिया जिले के बलरामपुर थाना स्थित सुपढ़िह गांव में 30 मई को 20 वर्षीय त्रिलोचन महतो का शव एक पेड़ से लटका मिला। उसकी पीठ पर भाजपा कार्यकर्ता लिखा हुआ था। शव के पास ही बांग्ला में लिखा एक खता मिला जिस पर लिखा था, ‘उसे हाल के स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा के लिए काम करने की वजह से दंडित किया गया है। भाजपा के लिए लिए काम करने पर यही हश्र होगा।’ इस घटना के तीन दिन बाद ही 2 जून को इसी थाना क्षेत्र के डाभा गांव में 35 वर्षीय दुलाल कुमार का शव बिजली की हाईटेंशन लाइन के टावर से लटका मिला। वह भी भाजपा कार्यकर्ता था। घटना से दो दिन पहले उसे कुछ लोगों ने जान से मारने की धमकी दी थी। चार दिन में भाजपा के दो कार्यकर्ताओं की इस तरह मौत से पार्टी का बौखलाना स्वाभाविक था। प्रदेश स्तर के नेताओं से लेकर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तक ने इसके लिए तृणमूल कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया और मामले की जांच सीबीआई से कराने की मांग की।
इस घटना के अगले ही दिन 3 जून को कूचबिहार जिले के जमलदाहा में तृणमूल और माकपा कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़प में रमजान मियां की मौत हो गई और दर्जनों लोग घायल हो गए। रमजान मियां माकपा कार्यकर्ता था और पिछले महीने हुए पंचायत चुनाव में जमलदाहा ग्राम पंचायत का सदस्य निर्वाचित हुआ था। 4 जून की रात को हावड़ा के बगनान में तृणमूल कार्यकर्ता महसिन खान की गोली मारकर हत्या कर दी गई। उसकी पत्नी ने पंचायत चुनाव में जीत दर्ज की थी। पंचायत चुनाव से लेकर अब तक प्रदेश में तीन दर्जन से अधिक लोगों की सियासी रंजिश में मौत हो चुकी है। सियासी हिंसा में सबसे ज्यादा कार्यकर्ता भाजपा के मारे गए हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों अनुसार, वर्ष 2016 में बंगाल में राजनीतिक झड़प की 91 घटनाएं हुर्इं और 205 लोग हिंसा के शिकार हुए। इससे पहले वर्ष 2015 में राजनीतिक झड़प की कुल 131 घटनाएं दर्ज की गई थीं और 184 लोग इसके शिकार हुए थे। वर्ष 2013 में बंगाल में राजनीतिक कारणों से 26 लोगों की हत्या हुई थी जो किसी भी राज्य से अधिक थी। वर्ष 1997 में वामदल की सरकार में गृह मंत्री रहे बुद्धदेब भट्टाचार्य ने विधानसभा में जानकारी दी थी कि वर्ष 1977 से 1996 तक पश्चिम बंगाल में 28 हजार लोग राजनीतिक हिंसा में मारे गए। ये आंकड़े प्रदेश में राजनीतिक हिंसा की भयावह तस्वीर पेश करते हैं।
राजनीतिक हत्याओं की वजह से उत्तरी केरल खासकर कन्नूर जिला आए दिन सुर्खियों में रहता है। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में बंगाल सियासी कत्लेआम का मरकज बन चुका है। केरल में जहां माकपा और आरएसएस-भाजपा के कार्यकर्ता एक-दूसरे पर हमलावर हैं, वहीं बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पों में तेजी आई है। इससे पहले प्रदेश में तृणमूल और वाम दलों के कार्यकर्ताओं के बीच सियासी हिंसा होती थी। बंगाल हो या केरल यहां राजनीतिक हत्याओं की एकमात्र वजह है एक-दूसरे के वोट बैंक पर कब्जा जमाना। दोनों राज्यों में भाजपा का जनाधार निरंतर बढ़ रहा है। इसलिए कार्यकर्ताओं पर हमले भी बढ़ रहे हैं। भाजपा के इस उभार के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का जमीनी योगदान है।
बंगाल में भाजपा को उन लोगों का समर्थन मिल रहा है जो कभी माकपा के परंपरागत वोटर हुआ करते थे। वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला तृणमूल कांग्रेस और माकपा के बीच था। वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में राज्य की कुल 295 सीटों में से तृणमूल कांग्रेस ने 211 सीटें जीतीं। पार्टी को कुल 44.91 फीसदी वोट मिले जो 2011 के मुकाबले 5.98 फीसद अधिक था। वहीं वाम-कांग्रेस गठबंधन को 26.36 फीसदी वोट मिले जो 2011 के मुकाबले 10.9 फीसद कम था। इस चुनाव में भाजपा ने कोई बड़ी जीत हासिल नहीं की और उसे तीन सीटों पर ही कामयाबी मिली लेकिन 2016 में पार्टी को 10.16 फीसदी वोट मिले जो 2011 के मुकाबले 6.10 फीसदी अधिक था। वर्ष 2016 का विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। लेकिन एक सच यह भी है कि वर्ष 1952 के विधानसभा चुनाव में जनसंघ (अब की भाजपा) को पश्चिम बंगाल में कुल नौ सीटों पर जीत मिली थी। बंगाल का सियासी गणित केरल के मुकाबले अलग है। केरल में जहां हर पांच साल में क्रमश: एलडीएफ और यूडीएफ सत्ता में वापसी करते रहे हैं वहीं बंगाल में सत्ता परिवर्तन की यह परिपाटी नहीं है।
नक्सलबाड़ी आंदोलन और आपातकाल से पहले बंगाल में कांग्रेस का एकछत्र राज था। लेकिन 1977 में राज्य में पहली बार वाम मोर्चा की सरकार बनी जो लगातार 34 वर्षों तक सत्ता में रही। इस दौरान कांग्रेस राजनीतिक रूप से कमजोर होती चली गई। साल 1998 में कांग्रेस से अलग होकर ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस बनाई। उस वक्त किसी ने सोचा नहीं था कि युवा कांग्रेस की यह नेत्री महज तेरह साल में बंगाल से वामदलों का सफाया कर देगी। वाम शासन के पहले बीस वर्षों में बंगाल में कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी थी। उस दौरान दोनों पार्टियों के समर्थकों के बीच झड़पें होती थीं। लेकिन टीएमसी के वजूद में आने के बाद माकपा बनाम कांग्रेस की लड़ाई माकपा बनाम तृणमूल हो गई। आज बंगाल की राजनीति का ठीक वैसा ही रक्तचरित्र सामने है। फर्क सिर्फ इतना है कि उस वक्त माकपा सत्ता में थी और टीएमसी विपक्ष में। आज टीएमसी सत्ता में है और भाजपा तेजी से उभरता विपक्ष। हमलावर भी वही हैं लेकिन उनकी पार्टी बदल गई है। 34 वर्षों के शासन में वामदलों ने बंगाल की भद्र राजनीति को रक्तरंजित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब तृणमूल के कार्यकर्ता राजनीतिक हिंसा के मामले में हूबहू माकपा के ढर्रे पर चल रहे हैं।
माकपा जब सत्ता में थी उस वक्त भी कोई चुनाव बगैर खून-खराबे के संपन्न नहीं होता था। माकपा पर आरोप लगते हैं कि उसने बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ को बढ़ावा दिया। साथ ही चुनावी फायदे के लिए उनके फर्जी मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड बनवाए। अब यही आरोप तृणमूल पर लग रहे हैं। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष के मुताबिक, ‘बांग्लादेशी घुसपैठियों और मुस्लिम तुष्टिकरण की वजह से वामदलों ने पश्चिम बंगाल में साढ़े तीन दशकों तक राज किया। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उससे भी दो कदम आगे हैं।’ वैसे तो ज्योति बसु के मुख्यमंत्रित्व काल के आखिरी दिनों में ही बंगाल में वामपंथ के राजनीतिक भविष्य पर सवाल उठने लगे थे। लेकिन नंदीग्राम और सिंगुर में किसानों की बहुफसली जमीन का अधिग्रहण और उसके विरोध में हुई हिंसा प्रदेश में वामपंथ की ताबूत का आखिरी कील साबित हुई। किसानों के इस आंदोलन की नायिका बनकर उभरीं ममता बनर्जी। इसकी बदौलत वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई।
कभी वामदलों को पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवियों का काफी समर्थन हासिल था। लेकिन नंदीग्राम और सिंगुर में किसान विरोधी नीतियों की वजह से वामदलों ने राज्य के बुद्धिजीवियों का समर्थन खो दिया। इसकी मिसाल तब देखने को मिली जब मशहूर साहित्यकार महाश्वेता देवी सिंगुर आंदोलन में ममता बनर्जी के साथ खड़ी हो गर्इं। सिंगुर में युवा टीएमसी नेत्री तापसी मलिक के साथ माकपा कार्यकर्ताओं ने न सिर्फ सामूहिक बलात्कार किया बल्कि उसे जिंदा जला दिया। इस बर्बर घटना के बाद बंगाल का एक बड़ा वर्ग जो कभी वाम दलों के साथ था वह खुलकर टीएमसी की हिमायत करने लगा। नंदीग्राम और सिंगुर आंदोलन में दर्जनों किसानों की मौत हुई, प्रस्तावित कारखानों पर ग्रहण लग गया लेकिन इसका फायदा ममता बनर्जी को मिला और वो सत्ता पर काबिज हो गर्इं। हालांकि तृणमूल के सत्ता में आने के बावजूद स्थानीय किसानों की हालत में कोई फर्क नहीं आया है।
कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है। साल 2011 में टीएमसी की सरकार बनने के बाद बड़ी संख्या में वामपंथी नेता व कार्यकर्ता टीएमसी में शामिल हो गए। इसके पीछे वामपंथ से मोह भंग होना नहीं बल्कि अपनी जान बचाने के लिए सत्ता का संरक्षण ज्यादा था। लेकिन बीते सात वर्षों में वाम कार्यकर्ता तेजी से भाजपा में शामिल हो रहे हैं। यहां भी मामला वैचारिक आस्था से अधिक जीवन रक्षा का है क्योंकि उन्हें लगता है कि मौजूदा दौर में अगर तृणमूल को कोई टक्कर दे सकता है तो वह भाजपा है। दीप्तिमान सेन गुप्ता उत्तर बंगाल में भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं। तीन साल पहले वे फॉरवर्ड ब्लॉक में थे। उनके पिता दीपक सेन गुप्ता कूचबिहार से फॉरवर्ड ब्लॉक के विधायक रह चुके हैं। ओपिनियन पोस्ट से बातचीत में दीप्तिमान सेन बताते हैं, ‘यह सही है कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हत्याओं का बीजारोपण वामदलों ने किया लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने उसे एक वृक्ष में तब्दील कर दिया। प्रदेश के हालिया पंचायत चुनाव में करीब तीन दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हुई। मरने वालों में सर्वाधिक तीस लोग भाजपा समर्थक थे। राज्य के जंगलमहल के इलाके वीरभूम, पुरुलिया, उत्तरी दिनाजपुर और बांकुड़ा जिले में भाजपा कार्यकर्ताओं पर सबसे ज्यादा हमले हुए हैं।’
इसमें कोई संदेह नहीं कि वाम सरकार के पतन के बाद भाजपा बंगाल में अपना सियासी जनाधार बढ़ाने में जुटी है। साल 2016 के विधानसभा चुनाव में उसे कोई विशेष फायदा तो नहीं मिला लेकिन करीब सौ सीटों पर उसके उम्मीदवार क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे। 2016 के कूचबिहार लोकसभा उपचुनाव में भाजपा दूसरे स्थान पर रही। हालिया संपन्न हुए ग्राम पंचायत चुनाव में भाजपा दूसरे स्थान पर रही। विधानसभा चुनाव के महज दो साल बाद हुए पंचायत चुनाव में भाजपा ने जिस तरह ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पैठ बढ़ाई उससे तृणमूल का परेशान होना लाजिमी है। बंगाल की राजनीति में जंगलमहल के इलाके का खास महत्व है। माना जाता है कि बंगाल की सत्ता जंगलमहल के इलाके से गुजरती है। इस इलाके में बांकुड़ा, पुरुलिया, पश्चिम मिदनापुर, झारग्राम और बीरभूम जिले हैं। इन जिलों के 33 थाना क्षेत्र माओवाद प्रभावित हैं। तीन दशकों तक जंगलमहल माकपा का मजबूत गढ़ रहा लेकिन 2011 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल को यहां जबरदस्त कामयाबी मिली। लेकिन इसके बरअक्स हालिया त्रि-स्तरीय पंचायत चुनाव में भाजपा को जंगलमहल के दो जिले झारग्राम और पुरुलिया में अच्छी कामयाबी मिली है। पुरुलिया में भाजपा ने जिला परिषद् की दस सीटों पर जीत हासिल की जबकि झारग्राम जिले में जिला परिषद् की तीन सीटें जीतीं। बांकुड़ा जिले में भाजपा को जिला परिषद् की एक भी सीट नहीं मिली लेकिन पंचायत समिति पद पर उसके कई उम्मीदवार जीते जो 2013 के मुकाबले कहीं ज्यादा है।
बंगाल में जिस तरह फॉरवर्ड ब्लॉक और माकपा के नेता भाजपा में शामिल हो रहे हैं उससे भी तृणमूल की बेचैनी बढ़ती जा रही है। पिछले साल माकपा के वरिष्ठ नेता विमान बोस यह बयान दे चुके हैं कि तृणमूल कांग्रेस को हराने के लिए उनके कार्यकर्ता भाजपा को वोट दे सकते हैं। गैर हिंदी भाषी प्रदेशों में जिस तरह भाजपा की जड़ें मजबूत हो रही हैं उसमें आरएसएस की वर्षों पुरानी मेहनत है। कर्नाटक, पूर्वोत्तर के राज्यों, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में आज जहां भाजपा खड़ी है उसके पीछे आरएसएस का काम है। बंगाल में भाजपा-आरएसएस के बढ़ते असर का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वाम शासन के वक्त राज्य में संघ की 350 शाखाएं लगती थीं जिनकी संख्या अब बढ़कर 1700 हो गई है। बीते तीन-चार वर्षों के दौरान बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा में भी तेजी आई है। खासकर मालदा, मुर्शिदाबाद, दिनाजपुर, हुगली आदि जिलों में। हिंसा और आगजनी के शिकार होने वालों में पिछड़ों और दलितों की संख्या अधिक है। भाजपा का आरोप है कि तृणमूल सरकार बनने के बाद हिंदुओं पर अत्याचार बढ़ा है वहीं ममता सरकार आरोपियों को सजा देने की बजाय उनका तुष्टिकरण कर रही है। इस मामले पर माकपा का कहना है कि यह हिंसा टीएमसी और भाजपा की मिलीभगत से हो रही है। सियासी पार्टियों के अपने-अपने दावे हैं लेकिन इतना जरूर है कि बीते एक-दो वर्षों में दुर्गा पूजा और रामनवमी के पूजा पंडालों को लेकर सरकार के फैसले पर कलकत्ता हाई कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा। इससे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी विपक्षी दलों खासकर भाजपा के निशाने पर हैं।
सांप्रदायिक हिंसा और पूजा मंडपों को लेकर हुए विवाद पर भाजपा एक समुदाय विशेष तक अपनी बात समझाने में कामयाब रही है कि मौजूदा सरकार चुनावी फायदे के लिए तुष्टिकरण की राजनीति कर रही है। फिलहाल जो हालात हैं उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि अगले साल आम चुनाव में भी बड़े पैमाने पर राजनीतिक हिंसा की आशंका है। सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ऐलान किया था कि किसानों की मर्जी के बगैर कोई भूमि अधिग्रहण नहीं होगा। लेकिन अपनी दूसरी पारी में तृणमूल सरकार अपने पुराने वादे को भूल गई। वरना उत्तर चौबीस परगना जिले के भांगड़ में थर्मल पावर प्रोजेक्ट के नाम पर किसानों से उनकी सिंचित-बहुफसली जमीन लेने का सरकारी फरमान नहीं सुनाया जाता।