अनूप भटनागर

उम्मीद के मुताबिक ही कांग्रेस और विपक्ष के कुछ अन्य दलों की ओर से दबी जुबान में कर्नाटक के राज्यपाल वजूभाई वाला को पद से हटाने की मांग आखिर उठ ही गई। कहा जा रहा है कि उन्होंने राज्यपाल के पद की गरिमा के अनुरूप अपनी भूमिका नहीं निभाई। मतलब, अगर राज्यपाल ने सबसे बड़े दल के नेता की बजाय तीसरे नंबर की पार्टी के नेता एचडी कुमारस्वामी को पहले सरकार बनाने का निमंत्रण दिया होता तो वजूभाई वाला संविधान के अनुरूप अपने दायित्वों का निर्वहन करने वाले एक श्रेष्ठ राज्यपाल कहे जाते।
राज्यों में विधानसभा चुनाव के बाद किसी दल के सरकार गठन करने की स्थिति में नहीं होने पर राज्यपाल को अपने विवेक से ही निर्णय लेना होता है। अधिकांश मामलों में राज्यपाल सबसे बड़े दल या उस समूह को आमंत्रित करते हैं जो स्थिर सरकार देने की स्थिति में होता है। कुल मिलाकर यह निर्णय राज्यपाल का ही होता है। राज्यपालों ने कई बार तो बहुमत की सरकार को ही अपरिहार्य कारणों या फिर केंद्र में सत्तारूढ़ दल के अनुरूप नहीं होने वाली राज्य सरकारों को बर्खास्त करने जैसा असंवैधानिक कदम भी उठाया है। राज्यपाल को पद से हटाने की मांग करने वाले शायद इस तथ्य से परिचित नहीं हैं कि इस विषय पर पहले भी विवाद हो चुका है और अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने आठ साल पहले 2010 में इस मामले में अपनी सुविचारित व्यवस्था भी दी थी।
कानून या किसी न्यायिक व्यवस्था में कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि त्रिशंकु विधानसभा होने की स्थिति में चुनाव बाद बने गठबंधन में सबसे कम सीटें जीतने वाले दल के नेता को मुख्यमंत्री बनाया जाना अनिवार्य है। क्या यह समूची लोकतांत्रिक प्रक्रिया का मखौल नहीं है कि चुनाव में बुरी तरह पराजित होने वाला सत्तारूढ़ दल सत्ता में बने रहने और इसके लाभ उठाने के लिए येन केन प्रकारेण कुर्सी से चिपके रहना चाहता है। चाहे इसके लिए उसे सबसे छोटे दल के नेता को अपने गठबंधन का नेता ही क्यों न स्वीकार करना पड़े। चुनाव बाद त्रिशंकु विधानसभा होने की स्थिति मेंं राज्यपाल को अपने विवेक से निर्णय लेना होता है और कर्नाटक के मामले में भी राज्यपाल ने यही किया और सबसे बड़े दल के नेता को सबसे पहले सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया।
कांग्रेस के शासनकाल के दौरान राज्यपालों को बर्खास्त करने की परंपरा के इतिहास में जाने की बजाय पिछले दो दशकों की गतिविधियों पर ही अगर नजर डालें तो बहुत कुछ समझ में आता है। राज्यपाल की पक्षपातपूर्ण भूमिका को लेकर सबसे अधिक चर्चित मामला वैसे तो 1988 का कर्नाटक के मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई का ही रहा है जिसमें सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने 1994 में अपने फैसले में व्यवस्था दी थी कि बहुमत का निर्णय सदन में शक्ति परीक्षण से ही कराया जाना चाहिए। इसी फैसले में न्यायालय ने यह कहा था कि मनमाने तरीके से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू नहीं किया जा सकता है। इस व्यवस्था के बावजूद कांग्रेस के शासन के दौरान राज्यपाल ने अपने विवेक से कुछ ऐसे निर्णय लिए जिनकी वजह से उन पर केंद्र सरकार का ही नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी के लिए काम करने के आरोप तक लगे। इनमें 1998 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी द्वारा भाजपा की कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करके कांग्रेस के जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बनाना, बिहार में राज्यपाल बूटा सिंह द्वारा अप्रैल 2005 में विधानसभा चुनाव के बाद राजग को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने की बजाय विधानसभा भंग करने की सिफारिश करना, झारखंड में मई 2005 के चुनाव के बाद राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी द्वारा राजग को सरकार बनाने का मौका देने की बजाय झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन को आमंत्रित करने जैसे प्रकरण शामिल हैं।
इन सभी मामलों में राज्यपाल की भूमिका पर उठे सवालों के बाद सुप्रीम कोर्ट को ही दखल देना पड़ा था। बोम्मई प्रकरण में बहुमत का फैसला सदन में ही करने संबंधी व्यवस्था के बावजूद राज्यपालों ने इसे नजरअंदाज किया। इसी का नतीजा था कि न्यायालय ने जहां बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह की कार्रवाई को गैर कानूनी करार दिया था वहीं झारखंड में राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी के निर्णय को संविधान से छल बताते हुए समेकित शक्ति परीक्षण का आदेश दिया था। इन व्यवस्थाओं में हर बार सदन में ही शक्ति परीक्षण कराया गया। इस बार भी न्यायालय ने राज्यपाल के निर्णय के मद्देनजर येदियुरप्पा को सदन में विश्वास मत प्राप्त करने का आदेश दिया था।
राज्यपाल की भूमिका पर उंगली उठाने और उन्हें पद से हटाने की मांग करने वालों के लिए यह समझना जरूरी है कि क्या ऐसा हो सकता है? यदि हां, तो ऐसा कब और किन परिस्थितियों में हो सकता है, ऐसा कौन और कैसे कर सकता है? भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यकाल में पांच साल के लिए राज्यपाल नियुक्त किए गए विष्णुकांत शास्त्री, बाबू परमानंद, कैलाशपति मिश्रा और केदार नाथ साहनी को जुलाई 2004 में डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने पद से हटा दिया था। ये राज्य थे उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात और गोवा। हालांकि पहले भी ऐसा होता रहा था लेकिन इस बार मामला न्यायिक समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। भाजपा सांसद और विहिप नेता अशोक सिंहल के भाई बीपी सिंहल ने मनमोहन सिंह सरकार की इस कार्रवाई को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। शीर्ष अदालत के दो न्यायाधीशों की पीठ ने 24 जनवरी, 2005 को इस प्रकरण को संविधान पीठ को सौंप दिया था क्योंकि इसमें संविधान के अनुच्छेद 156 की व्याख्या का मुद्दा निहित था। प्रधान न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इस मामले की सुनवाई की थी। पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एसएच कपाड़िया, न्यायमूर्ति आर रवींद्रन, न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी और न्यायमूर्ति पी सदाशिवम शामिल थे। संविधान पीठ ने 7 मई, 2010 को अपना फैसला सुनाया था। बाद में न्यायमूर्ति कपाड़िया और न्यायमूर्ति सदाशिवम भी देश के प्रधान न्यायाधीश बने।
संविधान के अनुच्छेद 155 के अंतर्गत राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति के हस्ताक्षर और उनकी मुद्रा सहित जारी अधिपत्र के माध्यम से की जाती और अनुच्छेद 156 के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद पर रहेंगे। राज्यपाल अपने पदग्रहण की तारीख से पांच साल की अवधि के लिए पद पर रहेंगे परंतु यह अवधि समाप्त हो जाने पर भी तब तक पद धारण करते रहेंगे जब तक उनका उत्तराधिकारी पद ग्रहण नहीं कर लेता है। राज्यपाल का पद और विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने के मामले में राज्यपाल द्वारा नई सरकार के गठन की प्रक्रिया लंबे समय से विवाद में रही है। यही नहीं, केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद सामूहिक रूप से राज्यपालों को पद से हटाने का सिलसिला भी लंबे समय से चला आ रहा था लेकिन 2010 में शीर्ष अदालत के फैसले के बाद इस पर अंकुश लगा।
इस बात की सराहना करनी होगी कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने कई राज्यपालों को अपना कार्यकाल पूरा करने दिया। हां, उन्होंने एक दो राज्यपालों को बर्खास्त भी किया जबकि कई राज्यपालों ने केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद खुद ही अपने पद से इस्तीफादे दिया था। नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता ग्रहण करने के बाद दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित (केरल), के. शंकर नारायण (महाराष्ट्र), एमके नारायणन (पश्चिम बंगाल), अश्विनी कुमार, बीएल जोशी (उत्तर प्रदेश), बीवी वांचू शेखर दत्त (छत्तीसगढ़) ने इस्तीफा दे दिया था। जबकि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के साथ कई मुद्दों पर राज्यपाल कमला बेनीवाल से तीखे मतभेद थे। नरेंद्र मोदी सरकार ने कमला बेनीवाल का मिजोरम तबादला किया और उनका कार्यकाल पूरा होने से दो महीने पहले ही उन्हें पद से हटाया गया था। कमला बेनीवाल को पद से हटाने को लेकर राजनीतिक विवाद भी हुआ लेकिन सरकार ने दावा किया कि इस कार्रवाई में संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं किया गया। इस तबादले के बारे में सरकार का कहना था कि राज्यपाल पर गंभीर आरोप थे। इसी तरह पुडुचेरी के उपराज्यपाल वीरेंद्र कटारिया को भी बर्खास्त किया गया। मिजोरम के राज्यपाल वी पुरुषोत्तम का नगालैंड तबादला किया गया था। इसके बाद कमला बेनीवाल को जहां पद से हटा दिया गया वहीं पुरुषोत्तम ने पद से इस्तीफा दे दिया था।
राज्यपाल को कार्यकाल पूरा होने से पहले ही पद से हटाने के संबंध में केंद्र-राज्य संबंधों पर गठित सरकारिया आयोग, संविधान के कामकाज की समीक्षा करने वाले वेंकटचलैया आयोग और पुंछी आयोग ने अलग-अलग सिफारिशें की लेकिन संसद ने उन सिफारिशों को कभी भी कानून का दर्जा नहीं दिया। इसलिए ये सिफारिशें सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं हैं। हां, न्यायिक समीक्षा के दौरान निश्चित ही इनकी मदद ली जाती रही है। सरकारिया आयोग ने 1988 में अपनी सिफारिश में कहा था कि राज्यपालों को पांच साल का कार्यकाल पूरा होने से पहले चुनिंदा अपरिहार्य परिस्थितियों के अलावा नहीं हटाया जाना चाहिए। इस सिफारिश का उद्देश्य राज्यपाल को अपने कार्यकाल के प्रति सुरक्षा प्रदान करना था ताकि वह बगैर किसी भय या पक्षपात के अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। यदि अपरिहार्य कारणों से राज्यपाल को हटाना पड़े तो उसे अपने आचरण के बारे में स्पष्टीकरण का अवसर दिया जाना चाहिए और उन्हें पद से हटाने के कारणों की जानकारी दी जानी चाहिए।
वेंकटचलैया आयोग ने भी 2002 में सरकारिया आयोग की सिफारिश की तरह ही कहा था कि राज्यपाल को सामान्यतया पांच साल का कार्यकाल पूरा करने देना चाहिए। यदि उन्हें कार्यकाल पूरा होने से पहले हटाना हो तो केंद्र सरकार को राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श के बाद ही ऐसा करना चाहिए। पुंछी आयोग ने 2010 में तो संविधान में संशोधन करके राष्ट्पति के प्रसादपर्यंत तक शब्द को हटाने की सिफारिश की थी क्योंकि उसका कहना था कि राज्यपाल को केंद्र सरकार की इच्छा से ही नहीं हटाया जाना चाहिए बल्कि इसकी बजाय उसे सिर्फ राज्य विधानसभा से पारित प्रस्ताव के आधार पर ही हटाया जाना चाहिए।
राजग के शासनकाल में नियुक्त चार राज्यपालों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले ही हटाने के मामले को लेकर दायर याचिका में बीपी सिंहल ने सरकार से पूरी फाइलें, दस्तावेज और तथ्य पेश करने का निर्देश देने का अनुरोध किया जिनके आधार पर राष्ट्रपति ने 2 जुलाई, 2004 का आदेश दिया। सिंहल यह भी चाहते थे कि चार राज्यपालों को पद से हटाने का आदेश निरस्त किया जाए और राज्यपालों को अपना कार्यकाल पूरा करने का आदेश दिया जाए। इस याचिका पर प्रारंभिक सुनवाई के दौरान विचार के लिए सामने आए कानूनी सवालों पर संविधान पीठ का करीब छह साल बाद फैसला आया। संविधान पीठ ने अपने निष्कर्ष में कहा कि चूंकि संविधान के अनुच्छेद 156 (1) के अंतर्गत राज्यपाल, राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत तक ही पद पर रहते हैं इसलिए राष्ट्रपति बगैर कोई कारण बताए और सफाई देने का कोई अवसर दिए बगैर ही राज्यपाल को बर्खास्त कर सकते हैं। यद्यपि प्रसादपर्यंत खत्म करने के परिणामस्वरूप कोई कारण बताने की आवश्यकता नहीं है परंतु अनुच्छेद 156 (1) में प्रदत्त अधिकार का इस्तेमाल मनमाने, ओछे या अनुचित तरीके से नहीं किया जा सकता।
संविधान पीठ ने कहा कि अधिकार का इस्तेमाल कम से कम और वैध तथा बाध्यकारी कारणों के लिए अपवाद वाली परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए। ये बाध्यकारी कारण याचिका में बताए गए कारणों, मसलन राज्यपाल का आचरण उनके पद के अनुरूप नहीं होना या शारीरिक और मानसिक रूप से अस्थिर चित्त अथवा भ्रष्टाचार में कथित संलिप्तता वाले नहीं बल्कि ये व्यापक परिमाप वाले होने चाहिए। बाध्यकारी कारण प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेंगे। यही नहीं, संविधान पीठ ने कहा कि राज्यपाल को इस आधार पर नहीं हटाया जा सकता कि वह केंद्र सरकार या केंद्र में सत्तारूढ़ दल की नीतियों और सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। राज्यपाल को इस आधार पर भी नहीं हटाया जा सकता कि केंद्र सरकार का उनमें विश्वास नहीं रह गया है। यानी राज्यपाल को केंद्र में सत्ता परिवर्तन होने के आधार पर नई सरकार की पसंद के व्यक्ति को नियुक्त करने के लिए नहीं हटाया जा सकता।
न्यायालय ने अपनी व्यवस्था में कहा कि चूंकि राज्यपाल को पद से हटाने के लिए कोई कारण बताने की आवश्यकता नहीं है इसलिए इसके परिणाम स्वरूप प्रसादपर्यंत वापस लेने को वैध माना जाएगा और यह सीमित न्यायिक समीक्षा के लिए उपलब्ध रहेगा। यदि प्रभावित व्यक्ति पहली नजर में यह बताने में सफल रहा कि उसे मनमाने, विद्वेषपूर्ण और अपनी मर्जी से हटाया गया है तो न्यायालय केंद्र सरकार को वह सामग्री पेश करने का आदेश दे सकता है जिसके आधार पर प्रसादपर्यंत वापस लेने का निर्णय लिया गया। हां, अगर सरकार कोई कारण नहीं बताती है या उसके द्वारा बताए गए कारण अनुचित, मनमाने या दुराग्रह पूर्ण पाए गए तो न्यायालय सिर्फ दूसरे नजरिये की संभावना के आधार पर ही हस्तक्षेप नहीं करेगा बल्कि यह भी कहेगा कि पेश सामग्री और कारण पर्याप्त हैं। संविधान पीठ की इतनी स्पष्ट व्यवस्था के बाद भी राज्यपाल पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने जैसे आरोप लगाकर उन्हें पद से हटाने की मांग करना न सिर्फ हास्यास्पद है बल्कि यह राजनीतिक दलों के पूर्वाग्रहों को भी दर्शाता है। 