प्रदीप सिंह/संपादक/ओपिनियन पोस्ट

जीवन में निराशा का सबसे बड़ा कारण होता है किसी से उम्मीद करना। एक बार जब हम किसी से उम्मीद करते हैं तो अपेक्षा होती है कि वह उम्मीद पर खरा उतरे। वह खरा नहीं उतरता क्योंकि उसे इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि हमें उससे कोई उम्मीद है। उस व्यक्ति या संगठन का आचरण उम्मीद के जितना ही ज्यादा विपरीत होता है, निराशा भी उतनी ही गहरी। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की सरकार के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है। आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं ने राजनीतिक दल बनाते समय और उससे पहले आंदोलन के समय देश के लोगों से जो कुछ कहा उसे आम लोगों ने उसी रूप में स्वीकार कर लिया। लोगों को उम्मीद थी कि केजरीवाल और उनके साथी परम्परागत राजनीति से अलग एक नई राजनीतिक संस्कृति का विकास करेंगे। देश की राजनीति फौरन न भी बदले तो बदलाव की शुरुआत होगी। इतना ही नहीं, आम लोगों को यह भी उम्मीद थी कि इस नई पार्टी की कार्यशैली से दूसरे परम्परागत दलों पर भी बदलाव के लिए दबाव बढ़ेगा। फरवरी 2015 में आम आदमी पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत मिला। दिल्ली के मतदाता ने उसे सत्तर में से सड़सठ सीटें दे दीं। कांग्रेस का विधानसभा से सफाया हो गया और भाजपा तीन सीटों पर सिमट गई। चुनाव नतीजे आने के बाद कांग्रेस पार्टी के उस समय के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा कि हमें आम आदमी पार्टी से सीखने की जरूरत है। राजनीति से अमूमन अलग रहने वाले बहुत से प्रोफेशनल्स और बुद्धिजीवियों ने केजरीवाल और उनकी पार्टी को हाथों हाथ ले लिया। भाजपा विरोधी दावा करने लगे कि केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विजय रथ रोक दिया है। पार्टी के नेता मंत्रि पद की शपथ लेने के लिए मेट्रो से आए। केजरीवाल और उनके साथियों के ऐसे हर आचरण के साथ लोगों की उम्मीद और भरोसा बढ़ता गया।
इस माहौल से अरविंद केजरीवाल को यह मुगालता हो गया कि उन्हें दिल्ली के लिए नहीं पूरे देश के लिए जनादेश मिला है। उन्होंने अपने को सर्वशक्तिमान मान लिया। इस अहम ब्रह्मास्मि का भाव आते ही सबसे पहले उन्होंने अपनों की गर्दन पर तलवार चलाई। सरकार बनने के कुछ ही महीने के अंदर उन्होंने बता दिया कि राजनीति में शुचिता और नैतिकता की बात और आचरण की सीख देने वालों की उन्हें जरूरत नहीं है। या इसे यों भी कह सकते हैं कि इन सीढ़ियों की अब उन्हें जरूरत नहीं रही। जिस अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी लहर पर सवार होकर केजरीवाल सत्ता में आए उन्हें तो वह पहले ही अलविदा कह चुके थे। प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, प्रोफेसर आनंद कुमार और उनके साथियों के साथ जो कुछ हुआ वह आने वाले दिनों की झांकी थी। आंदोलन के साथियों और केजरीवाल को वहां तक पहुंचाने वालों के साथ जैसा व्यवहार हुआ वह एक निरंकुश नेता के आगमन का संदेश था। उसके बाद से केजरीवाल ने जो चाहा वही किया। उन्होंने बिना किसी आधार के मान लिया कि उनका मुकाबला सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से है। इसलिए वे हर छोटी बड़ी बात के लिए सीधे प्रधानमंत्री को दोष देते रहे। केजरीवाल के सचिव के दफ्तर पर सीबीआई का छापा पड़ा तो उन्होंने प्रधानमंत्री को साइकोपैथ बता दिया। चुनाव आयोग ने आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों की सदस्यता लाभ का पद लेने के कारण रद्द कर दी तो आयोग को मोदी का आयोग बता दिया। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त पर निजी आरोप लगाए। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेतली पर अनाप शनाप आरोप लगाए। जेतली ने मानहानि का मुकदमा कर दिया तो अब सुलह का संदेश भिजवा रहे हैं। इससे पहले किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री के खिलाफ मानहानि के इतने मुकदमे हुए हों यह याद नहीं आता।
पिछले कुछ समय से केजरीवाल की बेचैनी बढ़ रही है। सड़सठ विधायक लेकर भी दिल्ली नगर निगम के चुनाव में बुरी तरह हार गए। पंजाब और गोवा में सरकार बनाने का सपना दिवा स्वप्न साबित हुआ। पंजाब में तो फिर भी दूसरे नम्बर की पार्टी बन गई पर गोवा में एक को छोड़कर बाकी सारे उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। उत्तर प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनाव में भी ऐसी ही गति को प्राप्त हुए। अब अरविंद केजरीवाल सरकारी पैसे से पार्टी का प्रचार चाहते हैं। एक बार पहले ऐसा कर चुके हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और अदालत ने सरकारी धन के इस दुरुपयोग पर रोक लगा दी। इसके बावजूद केजरीवाल चाहते हैं कि दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना करके विज्ञापन छपवाने के काम में उनकी मदद करें। जाहिर है कि कोई भी अधिकारी ऐसा नहीं कर सकता। सो दिल्ली के मुख्य सचिव ने भी मना कर दिया। उन्नीस फरवरी की आधी रात उन्हें मुख्यमंत्री आवास के कार्यालय बुलाया गया। कहा कि राशन कार्ड धारकों को राशन नहीं मिलने की शिकायत पर चर्चा होनी है। यह मुद्दा इतना गंभीर था कि आधी रात को मुख्य सचिव को बुलाना पड़ा। पर उस विभाग से संबंधित मंत्री को बुलाने की जरूरत नहीं समझी गई। आम आदमी पार्टी के दो विधायकों ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में मुख्य सचिव से मारपीट की। इसकी पुष्टि मेडिकल रिपोर्ट से हो चुकी है।
नेताओं और नौकरशाहों में झड़पें पहले भी होती रही हैं। पर मुख्यमंत्री की मौजूदगी में मुख्य सचिव के पिटने की यह पहली घटना है। इससे भी अफसोसनाक बात यह है कि मुख्यमंत्री को इस घटना पर कोई अफसोस नहीं है। मुख्य सचिव राज्य की नौकरशाही का मुखिया होता है। उसके साथ इस तरह का व्यवहार करके केजरीवाल नौकरशाही को क्या संदेश देना चाहते हैं। सरकार किसी पार्टी की हो सरकार की योजनाओं को जमीन पर लागू करने की जिम्मेदारी नौकरशाही की ही होती है। नौकरशाहों के साथ ऐसा व्यवहार करके केजरीवाल दरअसल अपना और दिल्ली की जनता का अहित कर रहे हैं। हर शर्मनाक घटना के बाद लगता है कि केजरीवाल और उनके साथी इससे नीचे नहीं गिरेंगे। ऐसा सोचने वाले हर बार गलत साबित होते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से जो लोग 2012 से 2015 तक आम आदमी पार्टी के साथ खड़े होने के लिए अपनी नौकरी, पैसा और श्रम दांव पर लगा रहे थे, सबसे ज्यादा निराशा उनमें है। ये ऐसे लोग थे जिन्हें केजरीवाल या उनकी पार्टी से कोई व्यक्तिगत अपेक्षा नहीं थी। पर यह उम्मीद विश्वास में बदल चुकी थी कि केजरीवाल और उनके साथी इस देश की राजनीति को बदलने आए हैं।
अरविंद केजरीवाल सरकार के तीन साल के कार्यकाल में एक बात तो साबित हुई है कि दूसरे दलों की तुलना में उनकी पार्टी को बिगड़ने में बहुत कम समय लगा। केजरीवाल और उनके साथियों ने एक बड़ी संभावना को मूर्त रूप लेने से पहले ही खत्म कर दिया। ऐसा करके उन्होंने अपना जो नुकसान किया वह तो किया ही पर देश की राजनीति का बहुत बड़ा नुकसान किया। अब निकट भविष्य में लोग किसी आंदोलन या उससे निकले राजनीतिक दल पर आसानी से भरोसा नहीं करेंगे। यह ऐसी क्षति है जिसकी भरपाई होना कठिन है।