बनवारी।

भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे छोटे देश मालदीव ने भारत के सामने बड़ी समस्या पैदा कर दी है। मालदीव की राजनीति में तूफान आया हुआ है और वहां एक संवैधानिक संकट पैदा हो गया है। मालदीव के श्रीलंका में निर्वासित होकर रह रहे पूर्व राष्ट्रपति नशीद ने इस संवैधानिक संकट का हल निकालने के लिए भारत से सैनिक हस्तक्षेप का आग्रह किया है। भारत मालदीव की घटनाओं से चिंतित है, उसने अपने नागरिकों को फिलहाल मालदीव न जाने की सलाह दी है, लेकिन वह जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहता। पर अगर मालदीव में राजनैतिक संकट बना रहता है तो वहां की कानून और व्यवस्था की स्थिति काफी बिगड़ सकती है। मालदीव में लगभग 25 हजार भारतीय नागरिक रहते हैं। उनकी सुरक्षा की समस्या गंभीर रूप ले सकती है और उन्हें वहां से निकालने के लिए कोई फौरी इंतजाम करना पड़ सकता है। कुछ समय से मालदीव में जेहादी तत्वों की सक्रियता भी बढ़ी है। वे भी स्थिति का लाभ उठाने की कोशिश कर सकते हैं। इसलिए भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा नहीं रह सकता। पर कोई बड़ा कदम उठाने से पहले वह अपने विकल्पों को तौल लेना चाहता है।
मालदीव का राजनैतिक संकट फरवरी के पहले सप्ताह में शुरू हुआ था। मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय ने एक मुकदमे में नौ विरोधी नेताओं और 12 सांसदों की गिरफ्तारी और सजा रद्द करके उन्हें रिहा करने और उन पर फिर से मुकदमा चलाने का आदेश दिया। सर्वसम्मति से दिए गए इस आदेश में जजों का मानना था कि यह सब राजनैतिक दुर्भावना से किया गया था। जिन 12 सांसदों को रिहा करने का आदेश दिया गया, वे शासक पार्टी से अलग हो गए थे और इस तरह मालदीव की संसद में राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के समर्थक अल्पमत में आ गए थे। इन सांसदों के फिर से संसद की कार्यवाही में भाग लेने पर सरकार विरोधी सांसद राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाकर उनकी सत्ता खतरे में डाल सकते थे। राष्ट्रपति यामीन ने इसे जजों द्वारा तख्ता पलटने की कोशिश कहा, उनका आदेश मानने के बजाय 15 दिन के लिए आपातकाल घोषित कर दिया और अदालत परिसर में सेना भेजकर मुख्य न्यायाधीश और एक अन्य जज को गिरफ्तार करवा दिया। अन्य तीन जजों ने डरकर सर्वोच्च न्यायालय के पहले के फैसले को निरस्त कर दिया। राष्ट्रपति यामीन ने अपने सौतेले भाई और पूर्व राष्ट्रपति मौमून अब्दुल्ला गयूम को गिरफ्तार करवा लिया। मालदीव के संविधान के अनुसार आपात स्थिति को दो दिन के भीतर संसद द्वारा अनुमोदित किया जाना आवश्यक है। उसके लिए संसद आहूत की जानी चाहिए थी, लेकिन राष्ट्रपति यामीन ने अभी तक उसका कोई संकेत नहीं दिया।
भारत और पश्चिमी शक्तियों ने राष्ट्रपति यामीन से अदालत का आदेश मानने व संविधान का अनुकरण करने के लिए कहा है। लेकिन ऐसा करने का मतलब होगा गद्दी छोड़ना और अभी राष्ट्रपति यामीन इसके लिए तैयार नहीं हैं। इस साल नवंबर में राष्ट्रपति पद के चुनाव होने हैं। दोबारा चुने जाने के लिए उन्हें अपने पद पर बने रहना आवश्यक लगता है। अभी सेना और पुलिस राष्ट्रपति यामीन के साथ खड़ी नजर आ रही है। लेकिन वह उनके साथ कितने दिन तक रहेगी, कहा नहीं जा सकता। सेना और पुलिस में पूर्व राष्ट्रपति गयूम के काफी वफादार हैं। जब उन्हें गिरफ्तार करके घर से बाहर लाया जा रहा था तो वहां तैनात सिपाहियों ने उन्हें सलामी दी थी। सत्ता प्रतिष्ठान में गयूम का अभी भी काफी समर्थन है। सर्वोच्च न्यायालय के जजों के भी उनके समर्थन में होने की बात कही जा रही है।
राष्ट्रपति यामीन 2013 में राष्ट्रपति बने थे और उनकी यह जीत विवादास्पद मानी गई थी। राष्ट्रपति बनने के बाद अपनी स्थिति निरापद करने के लिए उन्होंने अपने विरोधियों को जेल भेजना शुरू किया। इससे असंतोष पैदा होना स्वाभाविक था। 2015 में हज से लौटते हुए मालदीव के नजदीक उनकी नौका में विस्फोट हुआ। शुरू में इसे नौका की किसी मशीनी खराबी का परिणाम बताया गया। लेकिन विशेषज्ञों ने कहा कि ऐसा होना संभव नहीं है। उसके बाद उप राष्ट्रपति अहमद अदीब पर उन्हें मारने का षड्यंत्र रचने का आरोप लगा और उन्हें व उनके समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद राष्ट्रपति यामीन ने कुछ समय के लिए आपात स्थिति लगा दी। इससे पहले वह पिछले राष्ट्रपति नशीद को आतंकवाद विरोधी कानून में जेल भिजवा चुके थे। पश्चिमी देशों और भारत के दबाव में नशीद को इलाज के लिए ब्रिटेन जाने की अनुमति मिली। ब्रिटेन ने नशीद को राजनैतिक शरणार्थी का दर्जा दे दिया। तबसे वे ब्रिटेन और श्रीलंका में रह रहे हैं।
समस्या यह है कि जो आरोप राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन पर लग रहे हैं, वही आरोप पूर्व राष्ट्रपति नशीद पर लगे थे। उनसे पहले के राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम ने भी सत्ता में बने रहने के लिए इतने ही निरंकुश तरीकों का इस्तेमाल किया था। मौमून अब्दुल गयूम 1978 में राष्ट्रपति बने थे। उन्होंने तीस वर्ष शासन किया। उस समय के संविधान में राष्ट्रपति की असीमित शक्तियां थीं। वह राष्ट्राध्यक्ष भी था, सरकार का मुखिया और सेना का सर्वोच्च कमांडर भी। उस समय मजलिस ही राष्ट्रपति के उम्मीदवार को नामित करती थी। मजलिस में अपने समर्थकों को भरवाकर वे छह बार राष्ट्रपति के पद के लिए नामित हुए और अकेले उम्मीदवार होने के कारण हर बार 90 प्रतिशत से अधिक वोटों से जीते। उन्होंने अपने विरोधियों को जेल भेजने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 2008 में राष्ट्रपति चुने गए नशीद गयूम के शासन में 20 से अधिक बार जेल भेजे गए थे। तीन बार 1980, 83, 88 में उन पर जानलेवा हमला हुआ। 1988 में भारतीय सेना के 1600 जवानों को हवाई जहाज से माले भेजकर तख्ता पलट की कोशिश असफल की गई थी। भाड़े के अस्सी सैनिकों ने एक व्यवसायी के इशारे पर हवाई अड्डे पर कब्जा कर लिया था और राष्ट्रपति गयूम को जान बचाने के लिए काफी भागदौड़ करनी पड़ी थी। जनांदोलनों और बाहरी दबाव के बाद 2008 में एक नया संविधान बना, जिसमें न्यायपालिका को स्वतंत्र बनाया गया। पहली बार बहुदलीय चुनाव हुए। पहले दौर में गयूम आगे रहे, लेकिन उन्हें अपेक्षित 50 प्रतिशत वोट नहीं मिले। दूसरे दौर में कमजोर उम्मीदवारों के मैदान से हटने के बाद नशीद 54 प्रतिशत वोट पाकर राष्ट्रपति बने। गयूम की पार्टी में विभाजन हो गया और काफी लोग उनके सौतेले भाई अब्दुल्ला यामीन की तरफ हो गए। 2010 में गयूम ने राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा की। लेकिन तीस साल के शासन में सारा सत्ता प्रतिष्ठान उन्होंने अपने समर्थकों से भर दिया था। उनके भरोसे 2011 में गयूम ने एक नई पार्टी बनाई और राजनीति में वापस आ गए। 2008 के चुनाव में राष्ट्रपति बने नशीद के तौर-तरीकों से असंतुष्ट होकर सालभर में ही उनकी सहयोगी पार्टियों ने उनका साथ छोड़ दिया था। धीरे-धीरे असंतुष्टों की संख्या बढ़ती गई। 2011 में सभी विपक्षी दल एकजुट हुए। इसमें वे भी शामिल थे, जिन्होंने 2008 के चुनाव में नशीद का साथ दिया था। 2012 में नशीद ने फौजदारी अदालत के एक जज की गिरफ्तारी के आदेश दिए और सर्वोच्च न्यायालय के गिरफ्तारी रद्द करने के आदेश के बावजूद उन्हें रिहा नहीं किया। इसकी व्यापक निंदा हुई और विपक्षी रिपब्लिक स्क्वायर में 22 दिन तक धरना देकर बैठे रहे। इसके बाद पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बल प्रयोग से मना कर दिया। सेना भी विभाजित हो गई और तब नशीद को इस्तीफा देना पड़ा। 2013 के चुनाव में पहले दौर में नशीद चुनाव जीते, लेकिन उसे सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया। दूसरे दौर में अब्दुल्ला यामीन को विजयी घोषित किया गया, हालांकि उन पर चुनाव में धांधली बरतने के आरोप लगे।
इस सारी राजनैतिक उथल-पुथल में भारत सरकार ने पहले राष्ट्रपति गयूम का साथ दिया था। राष्ट्रपति नशीद का भी भारत सरकार ने आरंभ में साथ दिया, लेकिन नशीद काफी अवसरवादी साबित हुए और मौका मिलने पर चीन की ओर झुक गए। मालदीव हिंद महासागर में व्यापारिक मार्ग पर स्थित है। इसलिए सभी महाशक्तियों के लिए उसका सामरिक महत्व रहा है। उस पर चीन काफी समय से निगाह गढ़ाए बैठा है। राष्ट्रपति यामीन भी तबसे चीन की तरफ झुके रहे हैं जबसे अन्य पश्चिमी देशों की तरह भारत ने नशीद की गिरफ्तारी पर चिंता जताते हुए उसका विरोध दर्ज किया है। राष्ट्रपति यामीन ने पहले भारत की एक फर्म से माले का हवाई अड्डा बनाने का काम छीना और उसे चीन की फर्म को दे दिया। फिर मुख्यत: चीन को ध्यान में रखकर यामीन की सरकार ने यह निर्णय किया कि कोई भी मालदीव में एक अरब डॉलर का निवेश करके वहां जमीन खरीद सकता है। इससे यह आशंका पैदा होना स्वाभाविक था कि राष्ट्रपति यामीन मालदीव में चीन का सैनिक अड्डा बनवाने का रास्ता प्रशस्त कर रहे हैं।
मालदीव को लेकर भारत की तीन बड़ी चिंताएं हैं। मालदीव चार लाख आबादी वाला एशिया का सबसे छोटा देश है। उसकी अर्थव्यवस्था सैलानियों से होने वाली आय पर टिकी है। पिछले वर्ष मालदीव में 14 लाख से अधिक सैलानी आए थे, जिनमें चीन के सैलानियों की संख्या सबसे ज्यादा थी। ऐसे देश में आधुनिक राज्यतंत्र को टिकाए रखने के लिए केवल कराधान काफी नहीं होता। चीन अपने वित्तीय साधनों के बल पर मालदीव में काफी निवेश कर रहा है। मालदीव से उसने खुले व्यापार का समझौता कर लिया है और मालदीव उसकी वन वेल्ट-वन रोड योजना में शामिल हो गया है। अगर चीन मालदीव के कुछ द्वीपों का सामरिक उपयोग करने की छूट पा जाता है तो वह बड़ी आसानी से भारत पर नजर भी रख सकेगा और हिंद महासागर में अपने नौवहन को और अधिक सुगम बना सकेगा। इधर चीन की नौसेना की उपस्थिति हिंद महासागर में काफी बढ़ गई है। इन सब कारणों से चीन राष्ट्रपति यामीन की पीठ थपथपाने से नहीं चूकेगा। उसने भारत को आगह किया है कि वह मालदीव में सैनिक हस्तक्षेप न करे। भारत की दूसरी चिंता यह है कि मालदीव उन सब अपराधों का बड़ा केंद्र हो सकता है, जो सैलानियों की उपस्थिति के कारण पनप जाते हैं। मालदीव में जुआ खिलाने वाली अंतरराष्ट्रीय कंपनियां पसरने लगी हैं। ऐसे स्थानों पर वेश्यावृत्ति और नशे का कारोबार भी काफी फलता-फूलता है। इस्लाम के प्रभाव के बावजूद मालदीव का सामाजिक जीवन काफी शिथिल रहा है। संसार में सबसे अधिक विवाह-विच्छेद की दर यहां है और स्त्री-पुरुष संबंधों में स्वेच्छाचार बढ़ रहा है। इस सबकी प्रतिक्रिया में कट्टरपंथी तत्वों की संख्या भी बढ़ रही है। अल्पवासित द्वीप जिहादियों की शरणस्थली बनते जा रहे हैं। इस तरह के तत्वों को पाकिस्तान से काफी मदद मिल सकती है और मिल भी रही है। भारत के तटीय क्षेत्रों के निकट इस तरह के आपराधिक केंद्र का उभरना हमारा बड़ा सिरदर्द हो सकता है।
भारत की तीसरी चिंता मालदीव की भौगोलिक स्थिति है। मालदीव की सतह संसार में सबसे नीची है। समुद्र तट से उसकी निम्नतम ऊंचाई डेढ़ मीटर है और अधिकतम 2.4 मीटर। 2009 में जब सुनामी आई थी तो 14 फुट ऊंची समुद्री लहरों ने मालदीव के द्वीपों को आप्लावित कर दिया था। बाढ़ से केवल नौ द्वीप बचे थे, 57 को गंभीर क्षति पहुंची थी और 14 को पूरी तरह खाली करना पड़ा था। मालदीव का क्षेत्रफल 300 वर्ग किलोमीटर है और उसमें 1200 द्वीप हैं। सुनामी से भी बड़ी प्राकृतिक आपदा आने की स्थिति में उसकी चार लाख से अधिक आबादी को सुरक्षित जगह पहुंचाने की जिम्मेदारी भारत पर ही आएगी। उसे वहां रह रहे भारतीय नागरिकों की सुरक्षा भी तुरंत सुनिश्चित करनी पड़ेगी। यह कोई आसान काम नहीं है।
मालदीव से जुड़ी इन सब समस्याओं को देखकर पहला प्रश्न यही उठता है कि 1947 में उसे भारत में मिलाने की कोशिश क्यों नहीं हुई। वह 1887 से ब्रिटिश संरक्षण में था। उस समय उसकी आबादी हजारों में ही थी। मुसलमानों की बहुलता के कारण वहां का शासक सुल्तान कहा जाता था। जब वहां ब्रिटिश वायुसेना का अड्डा बना तो मालदीव की आर्थिक स्थिति कुछ सुधरी। 1932 में अंगे्रजों ने वहां एक संविधान लागू किया और उसे संवैधानिक राजशाही घोषित किया गया। 1953 में सल्तनत स्थगित करके उसे एक गणराज्य घोषित किया गया। जब उसका विरोध हुआ तो 1954 में सल्तनत बहाल कर दी गई। उसके बाद 1978 तक असली शासन प्रधानमंत्री के रूप में इब्राहिम नासिर का था। 1976 में ब्रिटेन ने अपनी वायुसेना का अड्डा समाप्त कर दिया। इससे मालदीव की अर्थव्यवस्था चरमरा गई। इब्राहिम नासिर 1978 में राजकोष के लाखों डॉलर लेकर सिंगापुर भाग गया। 1968 में एक जनमत संग्रह के जरिये मालदीव को गणराज्य घोषित कर दिया गया था। तब से नासिर वहां राष्ट्रपति था। उसके बाद हुए चुनाव में गयूम राष्ट्रपति चुन लिए गए।
भारत को 1947 में ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालकर मालदीव को अपने अधिकार में लेने की कोशिश करनी चाहिए थी। हिंद महासागर के व्यापारिक मार्ग पर स्थित होने के कारण उसका सामरिक महत्व सर्वज्ञात था। लेकिन उस समय की हमारी सरकार ने इस ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। उस समय भारत के अनुकूल माहौल था। भारत के स्वाधीनता संग्राम में हमारे सभी पड़ोसियों का योगदान रहा था। हमें ब्रिटेन के अलावा श्रीलंका की सहमति की आवश्यकता होती। उस समय अपनी सुरक्षा को भूलकर हमने अपने लिए एक स्थायी सिरदर्द पाल लिया है। यह सिरदर्द आने वाले समय में बढ़ने ही वाला है।