राजीव थपलियाल/वेद विलास उनियाल।

कोटद्वार से महज आठ किलोमीटर दूर मालिनी नदी के किनारे कण्व ऋषि का आश्रम केवल एक पौराणिक या प्रेम की गाथा का प्रतीक भर नहीं है। यह वह स्थल है जहां शेर के बच्चे से खेलते एक सुकुमार के नाम से इस देश को उसका नाम मिला। दरअसल, इस आश्रम को देश के सबसे प्रतिष्ठित और लोकप्रिय स्थलों में एक होना चाहिए था लेकिन उपेक्षा के चलते और अपने गौरव से न जुड़ पाने के बोध ने इसे देश दुनिया की निगाहों से लगभग ओझल रखा। आज भी कोटद्वार से गुजरते सैलानियों में बहुत जान भी नहीं पाते कि समीप ही कितने महत्वपूर्ण स्थल को नजरअंदाज करके वह आगे बढ़ रहे हैं। कहा जाता है कि यह आश्रम किसी समय महर्षि कण्व की तपोभूमि थी। यहीं अप्सरा मेनका की बेटी शंकुतला अपनी सखियों के साथ मृगों के छौनों के साथ खेलती थी और आश्रम में ऋषिवर के लिए फूल चुनती थीं। यहीं हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत शकुंतला पर मोहित हुए थे। इसी आश्रम में शकुंतला-दुष्यंत का वह बेटा भी था जो खेल-खेल में शेर के शावक के दांत गिन रहा था। प्रेम, सौंदर्य, वात्सल्य, विरह, कौतूहल से पूर्ण यह गाथा भारत की अमर प्रेम कथाओं में अपना अहम स्थान रखती है।
महाकवि कालीदास ने अपने नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम को रच कर शकुंतला-दुष्यंत की कथा को अमर कर दिया। कालीदास के जन्म स्थान के बारे में कई तरह की श्रुतियां हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि वे उत्तराखंड की भूमि कविल्ठा में जन्में थे। कुछ विद्वानों का मत है कि उज्जैन के शासक का यह अनमोल रत्न मध्य भारत में ही कहीं जन्मा था। जो भी हो लेकिन कालीदास की अपनी कथा ही कम रोचक नहीं। उनके और उनकी विदुषी पत्नी विद्योत्मा के प्रेम प्रसंग पर हिंदी साहित्य में विवरण आता है। पर यह निश्चित है कि कालीदास मां काली के अनन्य उपासक थे। उनमें सजृन का चमत्कारिक गुण था। हिमालय की दिव्यता और छवि का सुंदर वर्णन उनके साहित्य में आता रहा है। अपनी पौराणिक गाथाओं को आधार बनाकर उन्होंने संस्कृत में कई नाटक रचे जो साहित्य विधा को उनकी अनुपम देन है। देश दुनिया में इन नाटकों का मंचन हुआ। इसी शृंखला में उनका अभिज्ञान शाकुंतलम नाटक भी आता है जिसकी कथावस्तु कण्व ऋषि का आश्रम, शकुंतला-दुष्यंत की कहानी है। भारत के इस क्षेत्र को तब केदार खंड कहा जाता था लेकिन आगे चलकर भरत के नाम पर इस देश को भारतवर्ष कहने की परंपरा पड़ी।

भरत को भारत के सामने लाएं मोदी- शंकराचार्य श्री राजराजेश्वराश्रम

तीर्थ और पर्यटन का क्या स्वरूप होना चाहिए, पौराणिक स्थलों का कैसा स्वरूप चाहते हैं?
मैं कुछ निराश हूं। धार्मिक पौराणिक स्थल की मर्यादा को समझा जाना चाहिए। आज पर्यटन के नाम पर हम अधिक और कभी कभी वर्जित स्वतंत्रता भी ले लेते हैं। हम जिस भारत को देखना चाहते हैं उसमें पुरातन ऐतिहासिक चीजों के प्रति सम्मान जरूरी है। हमारे देश में जो आस्था के प्रतीक हैं और जो हमारी मूल संस्कृति की विरासत है उसे हमें संजोए रखना चाहिए। पौराणिक स्थलों को आधुनिक स्वरूप उसी स्तर पर दिया जाना चाहिए जिससे उनकी गरिमा को ठेस न पहुंचे।

कण्व ऋषि के आश्रम को फिर से संवारने की बात हो रही है। आप इसे किस रूप में देखते हैं?
राजा भरत के नाम पर इस देश का नाम पड़ा है। भाजपा के लिए इस समय हर चीज अनुकूल है। अगर भाजपा यह नहीं करेगी तो कौन करेगा और कब करेगा। कण्व ऋषि के आश्रम के दृष्टांत हमारे ग्रंथ और कथाओं में हैं। ऐसे ऐतिहासिक स्थलों को उनके मूल भाव में लाने और प्रतिष्ठित करने का दायित्व आधुनिक भारत के शासक नरेंद्र मोदी पर है। मैं तो यह भी कहता हूं कि ऐसे प्राचीन आश्रमों में गुरुकुल होना चाहिए जहां भारतीय संस्कृति के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए।

क्या आपको लगता है कि भाजपा भारतीय संस्कृति और परंपरा के लिए काम कर रही है?
भाजपा को इस दिशा में काम करने के लिए पर्याप्त अवसर और साधन मिले हैं। देश का मन भी इसके अनुकूल है। अभी इस पर कुछ नहीं कहूंगा लेकिन इस सरकार को देश की उम्मीदों के अनुरूप काम करना चाहिए। यह देश अपनी पुरानी प्रतिष्ठा चाहता है। विश्व गुरुके रूप में सामने आना चाहता है।

गंगा नदी प्रदूषित है, मालिनी नदी में भी जल नहीं है। ऐसे में केंद्र की नमामि गंगे योजना से आप कितनी उम्मीद रखते हैं?
गंगा, यमुना को हमने ही प्रदूषित किया और विलाप भी हम ही करते हैं। मालिनी जैसी अन्य पौराणिक नदियां तो लोगों की स्मृति में भी नहीं आतीं। दरअसल, गंगा, यमुना और सहायक नदियों की स्वच्छता और जलधारा के लिए हमें हमेशा सजग होना चाहिए था। जीवनदायी इन नदियों के महत्व को हम भूल गए। गंगा हमारी सभ्यता की भी प्रतीक है। सनातन काल से हम प्रकृति प्रेमी रहे हैं। यहां मनुष्य ने आदिकाल से तुलसी को जल दिया, वृक्षों की पूजा की, गंगा को मां माना लेकिन समय के साथ मनुष्य इन बातों को भूल गया। विकास की नई अवधारणा में वह केवल भोगवादी होता चला गया। इसने हमें गलत दिशा में मोड़ दिया। अब सरकार का कर्तव्य है कि वह ऐतिहासिक, पौराणिक चीजों के प्रति संवेदनशीलता दिखाए।

भारत में नाट्य परंपराओं में पौराणिक आख्यानों को संदर्भ बनाकर एक समय तो नाटकों का मंचन होता रहा लेकिन धीरे-धीरे पारसी थियेटर और फिल्मों के आने से धार्मिक पौराणिक गाथाओं, कथाओं को आधार बनाकर रचे गए नाटक सिमटते गए। कालीदास रचित नाटक भी पार्श्व में चले गए। आधुनिक मंचन ने अपनी कला अभिव्यक्ति के चलते और प्रतिमानों में पौराणिक आधार और सज्जा, ध्वनि मंच और नाटकों के प्रति नए बोध के अनुरूप नहीं पाया। लिहाजा नया थियेटर अभिज्ञान शाकुंतलम के मंचन का क्रम थम गया। लेकिन साहित्य की इस अमर कृति का अनुवाद विश्व की कई भाषाओं में हुआ है। कहते हैं कि जब एक बार भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू रूस की यात्रा पर गए तो वहां भारत से गई एक सांस्कृतिक टोली ने अभिज्ञान शाकुंतलम नाटक की प्रस्तुति की। इसके बाद रूस के प्रबुद्ध लोगों ने इस स्थली के बारे में जानना चाहा। पंडित नेहरू ने यह बताने में संकोच नहीं किया कि वह इस स्थली के बारे में पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। लेकिन उन्होंने भरोसा दिलाया कि भारत पहुंच कर वह अपने स्तर पर इस स्थल का पता लगाएंगे।

दरअसल, महाकवि कालीदास ने अपने नाटक में किसी निश्चित स्थान का उल्लेख नहीं किया है। इस आश्रम को केवल मालिनी तट के समीप बताया है। इसी तरह उत्तर प्रदेश के बिजनौर के समीप एक स्थल को भी कण्व ऋषि का आश्रम बताया जाता है। पंडित नेहरू वापस भारत आकर अपने वादे को भूले नहीं। उन्हें यह बात कचोटती रही कि आखिर जिस देश को हम भारतवर्ष कहते हैं और जिस पौराणिक गाथा का इतना महत्व है, उससे जुडेÞ स्थल की कोई जानकारी तो मिले। पंडित नेहरू ने विद्वानों को आमंत्रित किया। श्री सिद्धांतलंकार ने शिवालिक की घाटी और मालिनी के तीर जैसी कृतियां लिखी हैं। उनकी कृति को आधार मानकर यह धारणा बनी कि यह स्थल उत्तर प्रदेश में कहीं हो सकता है। पंडित नेहरू ने संयुक्त उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्र भानु गुप्त को इस स्थान का पता लगाने का काम सौंपा। निरंतर प्रयास के बाद यह पाया गया कि कण्व ऋषि का वह आश्रम कहीं और नहीं कोटद्वार के समीप मालिनी नदी के तट पर है।

इस खोज के दौरान ही यह भी पता लगाया गया कि ऋषि विश्वमित्र का आश्रम भी इसी स्थल से कुछ आगे रहा होगा। जब इस स्थल की खुदाई की गई तो यह पूरी तरह वनों से घिरा इलाका था। इस स्थल के आसपास जब खुदाई हुई तो कुछ मूर्तियां मिलीं। साथ ही यह भी महसूस किया गया कि यहां कभी लोग रहते रहे होंगे। कुछ साक्ष्यों के आधार पर पचास के दशक में कण्व ऋषि के आश्रम की शैली में एक आश्रम व कुटिया बनाई गई और इस क्षेत्र को सुरक्षित संरक्षित करने की कोशिश की गई। आज यहां मानवीय बस्ती है। कुटिया भी है और कण्व ऋषि के आश्रम की शैली में एक मंदिर, सिंह से खेलते बालक भरत की प्रतिमा, ऋषि के हाथों पूजा पाठ करवाते दुष्यंत-शकुंतला की प्रतिमा, यह सब कुछ यह बताने के लिए है कि कभी यह क्षेत्र किस तरह रहा होगा। बेशक आज यह स्थल काफी गर्म है। लेकिन सदियों पूर्व यहां पर्याप्त हरियाली रही होगी। आश्रम के आसपास वन्य जीवों का भी विचरण रहा होगा। इतना तो कर लिया गया लेकिन इससे आगे कुछ नहीं। जिस जगह को हमें पर्यटन के लिए दुनिया भर में चर्चित करना था वह उपेक्षित सा रहा। वह भी तब जबकि यह स्थल लैंसडाउन जैसे ऐतिहासिक स्थल और कोटद्वार जैसे व्यावसायिक गतिविधियों के लिए चर्चित स्थान से बहुत नजदीक है।

दुनिया भर में चर्चित जिम कार्बेट पार्क यहां से कुछ ही किलोमीटर दूर है। कुमाऊं गढ़वाल को आपस में जोड़ता रामनगर इसके करीब है। यह एक सुंदर आवाजाही का केंद्र बन सकता था लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। आज इस स्थान के पास से भी गुजर जाएं तो पता नहीं चलता कि कितने महत्वपूर्ण स्थल से होकर गुजरे हैं। इस स्थल को पर्यटन स्थल के रूप में संवारने की किसी सरकार ने कभी कोई कोशिश नहीं की। केवल आश्रम का रूप देने के लिए झोपड़ी और एक छोटी सी पगडंडी नुमा सड़क जरूर बनाई गई है। अगर आप यहां पर्यटन के इरादे से आएंगे तो आपको निराश ही होना पड़ेगा। इस आश्रम के आसपास कुछ घर हैं। उनमें रहने वाले लोगों से बात की तो उन्हें यह अहसास ही नहीं है कि वे किस पौराणिक और ऐतिहासिक स्थल में रहते हैं। यदि आप कोटद्वार आएंगे तो जिम कार्बेट पार्क की सूचना देते कई बोर्ड दिख जाएंगे। वन्य जीवों के चित्र भी दिखेंगे लेकिन कण्व ऋषि के आश्रम पहुंचने से संबंधित जानकारी का अभाव दिखेगा।

सीधी सी बात यही है कि कोई भी व्यक्ति इस जगह पर तभी आएगा जब उसके मन में शकुंतला-दुष्यंत की भूमि को देखने की लालसा होगी। या जो चाहता होगा कि जिस भरत की कहानी वह सुनते आए हैं वह जगह किस तरह होगी। लेकिन किसी पर्यटक को यहां लाने के लिए लालायित किया जाए इसके लिए कोई उपाय अब तक नहीं किया गया है। उत्तराखंड को देवभूमि या पर्यटन के लिए स्वर्ग बताने वाली तमाम बातों में भी इस स्थान की चर्चा नगण्य है। देश दुनिया के पर्यटकों को कभी प्रेरित ही नहीं किया गया कि वे चक्रवर्ती सम्राट भरत के इस स्थान पर आएं। अलग राज्य बनने के बाद यह उम्मीद थी कि उत्तराखंड के ऐसे स्थलों की सुध ली जाएगी जो अपना पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व रखते हैं। कण्व ऋषि का आश्रम इस दिशा में महत्वपूर्ण होता।

शकुं तला-दुष्यंत की कहानी पर फिल्म भी बनी, थियेटर भी खेला गया लेकिन कला-रंगकर्म जगत ने भी इस स्थान पर आने और अपनी कला को इस स्थान से जोड़ने की कोशिश नहीं की। इस स्थान के प्रति पर्यटकों में एक स्वाभाविक ललक उमड़े ऐसी कोई कोशिश कभी नहीं हुई। जो ढांचा शुरू में खड़ा हो गया वही आज भी है। ऋषि की जो कुटिया बनी वह भी वन विभाग के खौफ में सिमटी रहती है। रिसरिस कर खराब हो रही है। नए निर्माण में वन विभाग के कानून आड़े आते हैं। मगर इसका रास्ता निकाला जा सकता है। लैंसडाउन की ओर उमड़े सैलानी इस तरफ भी आ सकते थे। इतनी महत्वपूर्ण जगह पर्यटन का कभी केंद्र नहीं बन पाई।

यह वन्य क्षेत्र है। वन्य आधारित पर्यटन का यह एक स्वरूप हो सकता है। बेहद संजीदा होकर सरकार, प्रशासन, सामाजिक संगठन इस दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। प्रदेश के पर्यटन विभाग ने पर्यटन बढ़ाने के नाम पर करोड़ों खर्च किए। इन सोलह सालों में मंत्री नौकरशाह देश दुनिया घूम आए। पर्यटन के नाम पर वारे न्यारे होते रहे लेकिन जहां असल में काम किया जाना चाहिए था वहां से कोई सरोकार नहीं रहा। खासकर यह जानते समझते हुए भी कि इस स्थान का महत्व राज्य या देश भर का नहीं है बल्कि इससे जुड़े पहलू दुनिया को इसकी ओर खींच सकते हैं।