उमेश सिंह।

समाजवाद के फ्रांसीसी पुरोधा काम डी सिमान की अभिजात्यवर्गीय पृष्ठभूमि के विपरीत उनका भारतीय संस्करण कभी निपट गांव रहे सैफई के अखाड़े में तैयार हुआ। उसने पहलवानी के साथ ही सियासत के भी पैंतरे सीखे। चौधरी चरण सिंह ने कहा, ‘यह छोटे कद का बड़ा नेता है।’ बाद में उसी छोटे कद के बड़े नेता ने चौधरी की समूची सियासी-विरासत पर कब्जा कर लिया। उनके बेटे चौधरी अजित को हाशिये पर पहुंचा दिया। पकी उम्र में अब उसी को उसका लहू ललकार रहा है। राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, मधु लिमये और राजनारायण- इन सबके विचारों और राजनीतिक प्रयोगों और प्रयासों के उत्तराधिकारी मुलायम सिंह यादव यूं ही नहीं बन गए। दशकों तक सतत संघर्षमय जीवन में तपे तब जाकर निखरे। लेकिन ‘धरती-पुत्र’ ने अपने पुत्र के साथ विक्टोरियन बग्घी पर सवारी करने में भी गुरेज नहीं की, फिर भी आश्चर्य है कि देश में समाजवादी विचारधारा का संवाहक होने का तमगा सपा को ही मिला। डूबते सूरज को अर्घ्य दीजिए और उगते सूरज को प्रणाम कीजिए, सृष्टि का यही शाश्वत सत्य है। सपा में चल रहे छल-प्रपंच और विश्वासघात से जो तस्वीर उभरती है, उससे तो यही लग रहा है कि पिता मुलायम सिंह यादव को ‘अर्घ्य’ तथा पुत्र अखिलेश यादव को ‘प्रणाम’ करने की मुद्रा-भाव-भंगिमा में कुछ को छोड़कर पार्टी के ज्यादातर लोग आ गए हैं। मुलायम सिंह यादव चाहे जैसे रहे हों लेकिन उनकी सबसे बड़ी पूंजी थी कि जिसकी हाथ गही, फिर कुछ भी हो उसे छोड़ा नहीं। वह रिश्तों की तासीर को बखूबी महसूस करते थे। लेकिन दो-एक घटनाएं ऐसी भी हैं जब उन्होंने संबंधों का इस्तेमाल अपने सियासी बढ़त की महत्वाकांक्षा को फलीभूत करने के लिए किया, लेकिन इसे ‘सियासी-चातुर्य’ कहना बेहतर होगा। उत्तर प्रदेश के सियासी मैदान में दलीय सेनाएं चाक-चौबंद हो उतर पड़ी हैं लेकिन सियासत का यह महारथी अभी अपने ही पुत्र से उलझा हुआ है जिससे कि सपा रणक्षेत्र में कमजोर पड़ती दिख रही है। एक सवाल लोगों के जेहन में कौंध रहा है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों में मुलायम सिंह यादव ने सियासत में जो लंबी लकीर खींची, क्या अखिलेश में भी वैसा दम-खम है। अखिलेश के पास अभी सत्ता का आकर्षण है, इसलिए कलह के इस मोर्चे पर वह जीतते हुए नजर आ रहे हैं लेकिन क्या बाद में भी ऐसा ही रहेगा। पिता के दशकों की परिश्रम-साधना से खड़ी की गई समाजवादी इमारत के कंगूरे पर अखिलेश भले दिख रहे हों लेकिन वह इमारत क्या टिकी रह सकेगी? आपातकाल में बरेली मंडल कारागार में कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया के साथ 18 माह जेल में रहने वाले इलाहावाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष रामधीन सिंह ने कहा, ‘नहीं लड़ पाता बहादुर अपनों से और कायर दुश्मनों से। कंस और औरंगजेब बेहतर आदमी थे। उन्होंने सत्ता पाने के लिए पाप किया लेकिन यह पिता तो पांच वर्ष पहले ही सत्ता सौंप चुका था। कमांडर साहब की यूथ ब्रिगेड में मुलायम सिंह ने राजनीति का ककहरा सीखा। उनके ही अनुयायी थे। कमांडर साहब के हजारों शिष्य थे लेकिन मुलायम के मुलायम सिंह यादव बनने के लिए उनके पुरुषार्थ और परिश्रम को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जेपी और लोहिया ने कमांडर नाम दिया था, वे भी कमांडर साहब का ही संबोधन करते थे। उसी कमांडर की क्लास से मुलायम निकले।’

दरअसल मुलायम सिंह यादव के पास कुछ लोग ऐसे थे जो ‘घर फूंक तमाशा देख’ वाली वैचारिक बिरादरी से गहरा ताल्लुक रखते थे। इनमें जनेश्वर मिश्र, रमाशंकर कौशिक, मोहन सिंह, बृज भूषण तिवारी, भगौती सिंह, शतरुद्र प्रकाश, मधुकर दिघे, रामशरणदास, प्रो. उदय प्रताप, गोपाल दास नीरज आदि थे। अखाड़े के पहलवान रहे मुलायम की वैचारिक भित्ति इन्हीं जैसे लोगों से निर्मित थी, इसीलिए वे बड़ी लकीर खींच पाने में कामयाब रहे। उनके बेटे के साथ क्या ऐसे लोग हैं, जिन्हें वैचारिकता की पूंजी पर खड़ा हुआ माना जाए। सीएम अखिलेश के करीबियों में जो युवा शुमार हैं, उनमें कोई भी भविष्य का जनेश्वर, मोहन, बृजभूषण, रमाशंकर, लिमये फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। सत्ता और संतत्व दो विपरीत ध्रुव हैं। युवा अखिलेश के साथ सत्ताकामियों की भीड़ दिखती है न कि ‘सियासत के संतत्व’ जैसी वैचारिकता से ओत-प्रोत लोग।

डॉ. राममनोहर लोहिया के सानिध्य में रह चुके उनके गृह जिले अकबरपुर के बुजुर्ग समाजवादी सीताराम पांडेय ने डनिंग और मैकियावली के संदर्भ को याद करते हुए कहा, ‘कोई भी जननायक अपने युग का शिशु होता है। आज प्रबंधन का दौर है, उसमें समर्पित लोग बेबस नजर आते हैं इसलिए सियासत में आस्था-समर्पण की डोर कमजोर पड़ गई है। प्रबंधन की कोख से दलों में ‘अमर-तत्व’ की आमद हो गई। मुलायम नींव हो गए और अखिलेश इमारत बन गए। रही बात कौन किसके साथ खड़ा है तो बनने की दुनिया है, बिगड़ने की नहीं। डूबते सूरज को ‘अर्घ्य’ और उगते सूरज को ‘प्रणाम’, सृष्टि का यही शाश्वत सत्य है।

मुलायम सिंह यादव ने सतत संघर्षांे की बदौलत खुद को स्थापित किया जबकि अखिलेश को विरासत में बहुत कुछ खुद-ब-खुद मिल गया। डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1954 में फर्रुखाबाद में बढ़े हुए नहर रेट के विरुद्ध आंदोलन किया। जनता से बढ़े हुए टैक्स को न चुकाने की अपील की। इस आंदोलन में हजारों सत्याग्रही गिरफ्तार हुए। मात्र पंद्रह वर्ष की कच्ची उम्र में डॉ. लोहिया के आह्वान पर नहर रेट आंदोलन में भाग लिया और पहली बार जेल गए। अक्टूबर, 1992 में देवरिया के रामकोला में गन्ना किसाानों पर पुलिस फायरिंग के खिलाफ चलाए गए आंदोलन सहित विभिन्न जन संघर्षों में नौ बार इटावा, वाराणसी और फतेहगढ़ जेलों में रहे। यह मुलायमसिंह का सियासी चातुर्य ही था कि लोकदल और फिर जनता दल और फिर उसी जनता दल की कोख से चार व पांच नवंबर 1992 को लखनऊ में समाजवादी पार्टी की स्थापना की। भारत के राजनीतिक इतिहास की यह एक क्रांतिकारी घटना थी, जब लगभग डेढ़ दो दशकों से मृतप्राय समाजवादी आंदोलन को पुनर्जीवित किया गया। इससे पहले मुलायम सिंह लोकदल और जनता दल के अध्यक्ष थे। उन्हें 28 मई 2012 को लंदन में अंतरराष्ट्रीय जूरी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हाईकोर्ट आफ लंदन के सेवानिवृत्त न्यायाधीश सर गाविन लाइटमैन ने कहा, ‘श्री यादव का विधि एवं न्याय क्षेत्र से जुड़े लोगों में भाईचारा पैदा करने का सहयोग दुनिया भर में लाजवाब है।’

अदबी जगत से गहरा रिश्ता
कला, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन के प्रति मुलायम सिंह यादव हमेशा संवेदनशील रहे। एक दिलचस्प किस्सा वर्ष 1960 का है जब करहल के जैन इंटर कालेज मेंं हो रहे कवि सम्मेलन में दामोदर स्वरूप ‘विद्रोही’ ने ‘दिल्ली की गद्दी सावधान’ कविता ज्यों ही सुनानी शुरू की, तत्क्षण पुलिस इंस्पेक्टर ने माइक छीन लिया। कविताप्रेमियों के बीच में बैठे एक युवक ने मंच पर चढ़कर इंस्पेक्टर को पटक दिया। वह युवा मुलायम सिंह यादव थे। जब वह पहली बार सीएम बने तो कवि विद्रोही को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के साहित्य भूषण सम्मान से नवाजा गया। उन्होंने यश भारती शुरू कर अदबी जगत को नई ऊर्जा दी।