वीरेंद्र नाथ भट्ट।

उत्तर प्रदेश में लोग केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नोटबंदी की चर्चा में ही व्यस्त थे लेकिन पचास दिन की मियाद पूरी होने के बाद करेंसी का संकट थम गया है। अब एक ही चर्चा है समाजवादी पार्टी में चल रही उठापटक। पार्टी साफ तौर पर दो धड़ों में बंट चुकी है और झगड़ा चुनाव आयोग पहुंच गया है।

रजत जयंती वर्ष मना रही समाजवादी पार्टी विभाजित हो गई। अक्टूबर 1992 में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से बगावत कर मुलायम सिंह यादव ने लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क में समाजवादी पार्टी की नींव रखी थी। पच्चीस साल बाद उनके बेटे अखिलेश यादव ने बगावत कर दी और पार्टी टूट गई। चुनाव आयोग में मुलायम सिंह और अखिलेश दोनों ही ने पार्टी के नाम और चुनाव निशान पर दावा ठोक रखा है। 13 जनवरी को चुनाव आयोग का फैसला आने के एक दिन पहले ही मुलायम सिंह ने स्वयं को पार्टी टूटने की नैतिक जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया और सारा ठीकरा अपने चचेरे भाई और राज्यसभा सदस्य रामगोपाल यादव के सिर फोड़ दिया।

समाजवादी पार्टी के प्रदेश कार्यालय में 11 जनवरी को कार्यकर्ताओं से मुखातिब मुलायम सिंह ने कहा, ‘जो मेरे पास था दे दिया, अब बचा क्या है मेरे पास। मेरे पास सिर्फ कार्यकर्ता बचे हैं। जनता की बदौलत हम नेता बने। मैंने अपने जीवन में कभी भी अपनी पार्टी के बारे में अन्य पार्टी के नेता से बात नहीं की।’ रामगोपाल यादव पर हमला बोलते हुए मुलायम ने कहा, ‘हमें मालूम है कि पार्टी तोड़ने में कौन लगा है। पार्टी में कौन नहीं जानता कि वे किस दल के नेता से मिल रहे हैं। मुझे सब खबर है।’ रामगोपाल यादव का नाम लेते हुए मुलायम सिंह ने कहा, ‘अपनी बहू और बेटे के बचाने के लिए वो पार्टी तोड़ रहे हैं, वो उन्हीं के पास पहुंच गए जिन्होंने उन्हें फंसाया है। लोगों ने कहा कि वो तीन बार भाजपा अध्यक्ष से मिले हैं लेकिन मुझे खबर है कि वो भाजपा अध्यक्ष से चार बार मिल चुके हैं। अरे, रामगोपाल हमसे कह देते तो हम ही उनको बचा देते।’ उन्होंने कहा, ‘वो अखिल भारतीय समाजवादी पार्टी के नाम से पार्टी बनाना चाहते हैं और अपना चुनाव चिन्ह मोटरसाईकिल चाहते हैं।’

मुलायम ने कहा, ‘हमने अखिलेश को बार बार समझाया कि रामगोपाल से दूर रहो लेकिन उसको समझ में नहीं आता है। हम अखिलेश के खिलाफ नहीं हैं। हमने अखिलेश को दस जनवरी को भी समझाया था लेकिन उसकी समझ में ही नहीं आ रहा है।’ मुलायम सिंह अब भी दोहरा रहे हैं, ‘हम पार्टी नहीं टूटने देंगे। न चुनाव निशान बदलेंगे न पार्टी का नाम बदलेंगे। हम पार्टी को बचाना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि पार्टी टूटे।’

उल्लेखनीय है कि रामगोपाल यादव और उनके पुत्र अक्षय यादव जो फिरोजाबाद से सांसद हैं, दोनों के तार नोएडा के चीफ इंजीनियर यादव सिंह घोटाले से जुड़े हैं। यह वही यादव सिंह हैं जिनको सीबीआई जांच से बचाने के लिए अखिलेश यादव सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को मामले की जांच करने का आदेश दिया था। पिछले वर्ष अक्टूबर में रामगोपाल यादव के पार्टी से निष्कासन की घोषणा करते हुए समाजवादी पार्टी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव ने भी आरोप लगाया था कि यादव सिंह घोटाले में फंसे अपने बेटे और बहू को बचाने के लिए रामगोपाल यादव समाजवादी पार्टी के खिलाफ साजिश कर रहे हैं।

समाजवादी पार्टी के प्रदेश कार्यालय में 11 जनवरी को कार्यकर्ताओं को संबोधित करने के लगभग 48 घंटे पहले मुलायम ने अपने पिछले बयान से मुकरते हुए अखिलेश को अगला मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की थी। 12 को अखिलेश के साथ मुलायम की लंबी बैठक हुई लेकिन अखिलेश पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ने को तैयार नहीं हुए। उसके बाद से ही समाजवादी पार्टी में चर्चा गर्म थी कि नेताजी कोई बड़ा एलान कर सकते हैं।

मुलायम सिंह यादव ने पाटी कार्यकर्ताओं से कहा, ‘हमने अखिलेश को कहा है कि सीएम तुम ही बनोगे लेकिन रामगोपाल पार्टी तोड़ रहे हैं।’ मुलायम बोले, ‘मैं लिखकर देने को तैयार हूं लेकिन पहले अखिलेश खुद को रामगोपाल से अलग करें। वो उसे बरगला रहे हैं। मैंने अखिलेश से कहा कि विवाद में मत पड़ो, हम पार्टी में एकता चाहते हैं, वो अलग पार्टी बना रहे हैं। पार्टी बनाने के लिए हमने लाठियां खाई हैं। हम नहीं चाहते कि पार्टी टूटे। मैंने गरीबी में परिवार छोड़ा। संघर्ष करके समाजवादी पार्टी बनी है। इमरजेंसी के दौरान हमने बहुत संघर्ष किया, इससे बाद चुनाव लड़ा और जीता। कार्यकर्ताओं की मेहनत और संघर्ष से पार्टी आगे बढ़ी।’

अखिलेश यादव के चाचा राम गोपाल यादव ने एक जनवरी को सपा का आपातकालीन राष्ट्रीय प्रतिनिधि सम्मेलन आयोजित कर अखिलेश यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया था। पार्टी के संगठन और विधायकों का बड़ा तबका अखिलेश के साथ है फिर भी समाजवादी पार्टी के नेता अपने भविष्य को लेकर आशंकित हैं कि चुनाव सिर पर है और यह झगड़ा कब खत्म होगा। पार्टी का अखिलेश धड़ा इस बात से प्रसन्न है कि जो भी हो उनकी पार्टी को मुख्यमंत्री की साफ छवि का लाभ मिलेगा और इस विवाद से सरकार विरोधी रुझान भी कम होगा। पार्टी में दबी जुबान से यह भी चर्चा होती है कि सब कुछ नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव की मर्जी के अनुसार ही हो रहा है और वे अपने जीते जी पार्टी की कमान अखिलेश यादव को सौंप देने के लिए यह सब करवा रहे हैं।

पिछले चार महीने के घटनाक्रम पर नजर डालें तो साफ है कि यदि पार्टी में बंटवारा सितंबर में हो जाता तो अखिलेश अपने चाचा शिवपाल यादव से बाजी हार जाते क्योंकि तब विधायकों का बहुमत शिवपाल के साथ था। जैसे-जैसे विवाद बढ़ता गया अखिलेश का कद बढ़ता गया और आज शिवपाल यादव के साथ गिनती के चार-पांच विधायक ही बचे हैं।

लेकिन समाजवादी पार्टी का इतिहास गवाह है कि पार्टी और सत्ता सैफई के यादव परिवार का ‘फेमिली केक ’ है जिसको मुलायम सिंह ने अपने परिवार में खुले हाथ बांटा है। उसी का परिणाम है कि पार्टी संगठन, मैनपुरी, इटावा जिले की लोकसभा, विधानसभा सीटों और अन्य सभी प्रमुख पदों पर पार्टी के प्रथम परिवार के सदस्य काबिज हैं। ऐसी स्थिति में पार्टी की कमान पुत्र के हाथ सौंप देना सहज और सामान्य प्रक्रिया नहीं हो सकती।

सेंटर फॉर स्टडी आॅफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक अनित कुमार वर्मा कहते हैं, ‘इस विवाद के जरिये मुलायम सिंह ने नोटबंदी के मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया है और आज चर्चा केवल उनकी पार्टी और पुत्र की हो रही है। ऊपरी तौर पर तो लगता है कि वे अपने पुत्र से लड़ रहे हैं लेकिन वास्तव में मुलायम सिंह यह सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि अखिलेश का पार्टी और सरकार पर पूर्ण प्रभुत्व कायम हो जाए। यह इस बात से स्पष्ट है कि नेताजी सुबह अपने पुत्र के लिए मुलायम होते हैं तो शाम को कठोर हो जाते हैं और पिछले चार महीने से यही सिलसिला चल रहा है।’

वर्मा कहते हैं, ‘बहुत लोगों का मत है कि पहलवान मुलायम सिंह यादव अपने पुत्र से मात खा गए लेकिन मुलायम को कोई हरा नहीं सकता वे उतना ही हारेंगे जितना वे चाहेंगे।’

राजनीतिक विश्लेषक यह भी कहते हैं, ‘मुलायम सिंह के खेल में कुछ भी गोपनीय नहीं है। पिछले वर्ष चौबीस अक्टूबर को अखिलेश यादव ने अपने सरकारी आवास पर सभी विधायकों की बैठक बुलाई और उसके बाद अपने चाचा शिवपाल यादव समेत तीन अन्य मंत्रियों को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया, लेकिन अब तक मुलायम सिंह ने शिवपाल की मंत्रिमंडल में बहाली के लिए अपने पुत्र से कहने के स्थान पर इस मामले पर निर्णय अखिलेश के विवेक पर छोड़ दिया।

नेताजी अखिलेश के लिए अब भी मुलायम हैं, लेकिन किसी के मन में कोई संदेह न रहे इसलिए साइकिल नहीं छोड़ेंगे। अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के डिफैक्टो पार्टी अध्यक्ष हैं, वहीं मुलायम सिंह यादव चुनाव आयोग के रिकॉर्ड में डिज्यूरे यानी कानूनी रूप से अध्यक्ष बने हुए हैं। मुलायम सिंह यादव ने पहलवानी ऐसे अखाड़े में सीखी है, जहां बिना दो-दो हाथ किए जीत-हार स्वीकार नहीं की जाती, मुकाबला चाहे जितना मुश्किल हो। सबको प्रत्यक्ष दिख रहा है कि पार्टी कार्यकर्ताओं का मूड उगते सूरज को सलाम करने का है। फिर अखिलेश को सत्तारूढ़ होने का भी लाभ है। यह सब जानते हुए भी मुलायम हार मानने को तैयार नहीं दिखते। मीडिया के सामने आने पर मुलायम सिंह के चेहरे पर बुढ़ापा, थकान और तनाव साफ झलकता है। फिर भी वे दावा करने से नहीं चूकते, ‘साइकिल पर हमारा हक है, बड़ी मेहनत से समाजवादी पार्टी बनाई है और चुनाव आयोग में दाखिल सभी कागजों पर हमारा दस्तखत है।’

अखिलेश यादव को पार्टी अध्यक्ष चुनने के लिए जनेश्वर मिश्र पार्क में जो सम्मेलन हुआ, उसकी सारी कार्यवाही हड़बड़ी में निबटाई गई। संभवत: यह डर था कि मुलायम और शिवपाल वहां पहुंच कर गड़बड़ न कर दें। दूसरी गौरतलब बात यह है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद रिक्त हुए बिना ही दूसरा अध्यक्ष चुन लिया गया।

समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता अम्बिका चौधरी ने कहा, ‘चुनाव आयोग के सामने राम गोपाल यादव को यह भी साबित करना पड़ेगा कि विशेष आपात अधिवेशन विधिसम्मत था, जबकि मुलायम उसे गैरकानूनी घोषित कर चुके थे। पार्टी संविधान के अनुसार चालीस फीसदी प्रतिनिधि लिखित रूप से विशेष अधिवेशन बुलाने की मांग पार्टी अध्यक्ष से कर सकते हैं और उनके मना करने पर ही असंतुष्ट गुट ऐसा कर सकता है।’ माना जाता है कि राम गोपाल यादव कई महीनों से सम्मलेन की तैयारी कर रहे थे, इसी को रोकने की कोशिश मुलायम सिंह कर रहे थे, जिसमें रामगोपाल का निष्कासन और बहाली शामिल है। मुलायम के हनुमान बने शिवपाल ने कहा कि चुनाव आयोग को लिखित सूचनाएं भेजी गई हैं कि विशेष अधिवेशन गैरकानूनी था। बहरहाल, हकीकत यह है कि सरकार और पार्टी की सत्ता वास्तविक रूप से बेटे के पास है, जबकि साइकिल चुनाव निशान मुलायम के पास। संभवत: इसीलिए मुलायम ने पांच जनवरी का जवाबी सम्मेलन स्थगित कर दिया। अब दोनों गुटों का दावा चुनाव आयोग के सामने है। विवाद के निबटारे की प्रक्रिया अर्ध न्यायिक है, यानी काफी छानबीन और गवाही सबूत के बाद ही इसका निर्णय होगा।

चुनाव चूंकि सिर पर हैं, इसलिए इतने कम समय में चुनाव आयोग निर्णय नहीं कर सकता। ऐसे में चुनाव आयोग फिलहाल साइकिल निशान फ्रीज करके दोनों को नए निशान लेने के लिए कह सकता है। ऐसे संकेत हैं कि अखिलेश गुट की मानसिक तैयारी इसके लिए है और प्लान बी के तहत वे किसी पुरानी रजिस्टर्ड पार्टी का निशान ले सकते हैं। इसीलिए मुख्यमंत्री ने अपने समर्थकों से कहा है कि वे जनता के बीच जाएं। लेकिन साइकिल से पैदल होना मुलायम के लिए एक बड़ा झटका हो सकता है। बाप-बेटे दोनों एक दूसरे पर दबाव बनाने के बावजूद अभी सुलह सफाई की गुंजाइश रखे हुए हैं क्योंकि ऊपर से कठोर होने के बावजूद ‘नेताजी’ का दिल अब भी अखिलेश के लिए मुलायम है। ध्यान रहे कि अखिलेश ने भी अभी तक सरकार से मुलायम के विश्वस्त गायत्री प्रजापति की छुट्टी नहीं की है।

मिशन-2017 में भारी कौन? अखिलेश या मुलायम
अब जब यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव एवं मुलायम सिंह में सुलह नहीं हो सकती। दोनों अलग-अलग चुनाव लड़ेंगे। अभी कुछ महीने पहले विरोधी भी यह मानने लगे थे कि समाजवादी पार्टी इस बार बेहद मजबूत है और 2017 में भी फिर सत्ता में वापसी कर सकती है। समाजवादी पार्टी के एक नेता प्रोफेसर योगेंद्र यादव के अनुसार, ‘यदि हम अखिलेश और मुलायम सिंह के मतदाताओं की प्रकृति की बात करते हैं तो पचास वर्ष से अधिक आयु वाले जितने भी समाजवादी मतदाता हैं, वे मुलायम को वोट करेंगे। इस वोट का प्रतिशत करीब 80 हो सकता है। इस उम्र के मतदाताओं के 20 प्रतिशत मत अखिलेश के खाते में जाएंगे, यानी यदि हम इस उम्र के मतदाताओं की बात करें, तो इन मतदाताओं ने मुलायम सिंह का संघर्ष देखा है। उनके संघर्ष के सिर्फ दृष्टा ही नहीं रहे हैं, अपितु उस संघर्ष में किसी न किसी रूप में भाग भी लिया है। दलित और पिछड़े वर्गों को जो सम्मान, बराबरी का दर्जा आज समाज में मिला है, उसे दिलाने में मुलायम सिंह का भी योगदान रहा है। इसके विपरीत इस उम्र के जो मतदाता अखिलेश यादव को पसंद करते हैं, उनके बच्चे या तो अखिलेश के साथ हैं या वे ठेके-पट्टेदारी करते हैं जिन्हें किसी न किसी रूप में लाभ मिला है। लेकिन वे कब तक और कितने समय तक मुलायम सिंह से दूर रहेंगे, यह कहना मुश्किल है। यदि चुनाव प्रचार में मुलायम सिंह निकल गए और आह्वान कर दिया, तो उनके सभी पुराने साथी फिर से मुलायम सिंह के साथ हो जाएंगे।’

योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘ दूसरी कटेगरी में वे समाजवादी मतदाता हैं जो 50 वर्ष की उम्र से नीचे के हैं। इनमे से अधिकांश युवा अखिलेश यादव के साथ मात्र इसलिए जुड़े थे क्योंकि बसपा के शासनकाल में इनके खिलाफ कोई न कोई कार्रवाई की गई थी। यानी अखिलेश यादव के साथ जो आज युवाओं की भीड़ दिखाई देती है, वह ऐसे युवाओं की नहीं है जो समाजवाद दर्शन से प्रशिक्षित या शिक्षित हों, बल्कि ये सभी लोग उस भीड़ का हिस्सा हैं जो एक ही प्रकार की पीड़ा के शिकार हैं। इसके बाद उनमें से कई युवाओं ने अखिलेश यादव से अपनी खूब नजदीकियां बना लीं। जिनकी औकात साइकिल से चलने की नहीं थी और अपने बूथ पर 15 वोट दिलाने की नहीं थी, वे सभी पुरस्कृत होते गए। इसी कारण अखिलेश के साथ रहने वाले युवाओं में एक ऐसा वर्ग भी पनप गया जो अखिलेश यादव के इन साथियों से नफरत करने लगा है। ऐसे सभी युवा नेताओं की भीड़ अखिलेश यादव के साथ तो दिखेगी लेकिन वे पूरे परिश्रम के साथ कार्य करेंगे इसमें शक है। फिर कुछ ऐसे भी संस्कारी युवक हैं, जो अखिलेश यादव के साथ मात्र इसलिए खड़े थे क्योंकि वे अपने पिता के एक आज्ञाकारी पुत्र थे, अपनी पत्नी के ईमानदार पति थे, अपने बच्चों से प्रेम करने वाले पिता थे। दोस्ती निभाने वाले एक अच्छे दोस्त थे। अपने से बड़ों की बात मानने वाले और उनको उचित सम्मान देने वाले थे। इस कलह से उनका भ्रम टूटा है। इस कारण ऐसे युवा एक बार फिर उनसे मुंह मोड़ सकते हैं। उनसे दूरी बना सकते हैं। इसका खामियाजा अखिलेश यादव को 2017 के चुनाव में भुगतना पड़ेगा।’

देवरिया के समाजवादी पार्टी के युवा नेता चंद्रभूषण यादव कभी अखिलेश के बहुत करीबी थे, आज अपनी उपेक्षा से नाराज हैं। चंद्रभूषण कहते हैं, ‘अखिलेश यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती बूथ एवं सेक्टर लेवल के कार्यकर्ताओं को फिर से मुख्यधारा से जोड़ने की है। पूरे उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक अगर कोई अखिलेश यादव से नाराज है, तो वह बूथ एवं सेक्टर लेबल का कार्यकर्ता है, जो पूरे 5 साल उपेक्षित रहा। अब फिर एक बार नेता उसके घर का चक्कर लगा रहे हैं। लेकिन उसने मन बना लिया है कि इस बार वह बूथ तक किसी को वोट दिलाने के लिए नहीं ले जाएगा। किसी से कोई वायदा नहीं करेगा, न किसी से कोई झगड़ा झंझट करेगा। इस कारण जमीन पर अखिलेश यादव बेहद कमजोर हैं। दरअसल बूथ एवं सेक्टर पर जो कार्यकर्ता काम करते हैं, वे सभी नेताजी के समय के हैं और अखिलेश द्वारा उपेक्षित होने का सीधा लाभ मुलायम सिंह को मिलेगा।’

अखिलेश दावा चाहे जो करें मगर उनके लिए समाजवादी पार्टी के भावी मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर आगे बढ़ने की राह अब बहुत आसान नहीं रह गई है। दूसरी बात यह है कि पिता पुत्र के बीच कटुता अब पारिवारिक कम और राजनीतिक अधिक हो गई है। चाचा शिवपाल की तुलना में पार्टी में अखिलेश की पकड़ बहुत ही कमजोर है। जो युवा शक्ति उनके साथ दिखती है वह राजनीतिक जोड़तोड़ में अनुभवहीन है। अखिलेश का मुस्कुराता चेहरा मतदाताओं का कितना विश्वास हासिल कर पाएगा यह अभी इसलिए यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनके विरोधी उत्तर प्रदेश की बदहाली, जातिवादी प्रशासन और भ्रष्टाचार व कमजोर कानून व्यवस्था के लिए अखिलेश के मुस्कुराते चेहरे को ही निशाना बना रहे हैं। ऐसे में ‘एकला चलो’ का रास्ता अखिलेश को कहां पहुंचाएगा यह कोई नहीं जानता। अखिलेश के ‘तुरुप के पत्ते’ और ‘रावण का वध’ करने जैसे सूत्र वाक्यों के खुलासे का इंतजार करते हुए अब अखिलेश के पक्के समर्थक कहे जाने वाले चेहरे भी कुम्हलाने लगे हैं। पार्टी में बरसों से जुड़े रहे खांटी समाजवादी भी अब उहापोह में हैं कि जाएं तो जाएं कहां क्योंकि बतौर प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव संगठन में भी अपनी पकड़ नहीं बना पाए और सरकार के मुखिया के तौर पर तो वे अप्रासंगिक हो चले हैं।

कल तक जो चेहरा पार्टी की चुनावी यात्रा का नायक बताया जा रहा था उसे अब खुद सपा के मुखिया खारिज कर रहे हैं। खुद मुलायम सिंह यादव का स्वास्थ्य ऐसा नहीं है कि वे चुनावी रथ पर सवारी कर सकें। तब ऐसे में समाजवादी पार्टी चुनाव में क्या दावेदारी लेकर जनता के बीच जाएगी, यह बड़ा सवाल है। साढ़े चार साल सरकार का चेहरा अखिलेश यादव रहे हैं। सरकार कितनी सफल रही है, इसकी घोषणा स्वयं मुलायम सिंह यादव अनेक मौकों पर सार्वजनिक तौर पर यह कहकर कर चुके हैं कि सरकार के मंत्री काम नहीं करते, रुपये कमाने में जुटे हैं। कार्यकर्ता जमीनें कब्जा कर रहे हैं, जनता की कोई सुधि नहीं ले रहा। अमरमणि त्रिपाठी के बेटे अमनमणि को टिकट देकर और मुख्तार पर रजामंदी दिखा कर समाजवादी पार्टी अपना भावी चेहरा भी एक तरह से जनता के सामने प्रस्तुत कर ही चुकी है।

कुल मिलाकर कहीं से भी उम्मीद की कोई खिड़की खुलती नहीं दिख रही। ऐसे में 25 वर्ष का जश्न समाजवादी पार्टी के लिए आगे की राह को आसान बना पाएगा, ऐसा लगता नहीं। अखिलेश ने अब तक एक बार भी इतनी राजनीतिक संकल्प शक्ति नहीं दिखाई है कि पार्टी उनसे अपने दम पर अगली सरकार की उम्मीद कर सके और जो पार्टी के बिग बॉस हैं वे खुद ही इसकी लुटिया डुबाने पर उतारू दिख रहे हैं।

इस तरह समाजवादी पार्टी अपने पतन की पटकथा खुद ही लिख रही है। पार्टी के एक पुराने नेता मायूस होकर कहते हैं, ‘मुलायम जब चौतरफा घिरे हुए थे तब उनके जुझारू तेवरों को देखकर हमने नारा दिया था-जिसने कभी न झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम है। ऐसे मुलायम को झुकाने की कोशिश में अखिलेश का ही धड़ाम होना तय है। लेकिन इसमें तबाही तो अंतत: समाजवादी पार्टी की ही हो रही है। क्या 25 साल का सफर ही समाजवादी का भविष्य होगा इस सवाल का जवाब समाजवादी पार्टी से जुड़ा हर चेहरा जानना चाह रहा है।