विजय शर्मा

आपके बच्चे आपके बच्चे नहीं हैं। वे जीवन की खुद के प्रति लालसा के पुत्र-पुत्रियां हैं। वे आपके द्वारा आए पर आपसे नहीं आए और हालांकि वो आपके साथ हैं पर फिर भी आपके नहीं हैं।’ खलील जिब्रान की इस बात को कितने माता-पिता जानते हैं और अगर जानते हैं भी तो अपने जीवन में इसे कितना याद रखते हैं, जीवन में कितना उतारते हैं। अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों को अपनी सम्पत्ति मानते हैं और अपने अधूरे स्वप्नों को पूरा करने का जरिया समझते हैं। कहा जाता है, माता-पिता का प्यार नि:स्वार्थ होता है। यह बात कितनी सही है, सोचना होगा। तरण तो खैर मरने के बाद होगा मगर जीते-जी भी माता-पिता अपने बच्चों से कम अपेक्षाएं नहीं पालते हैं। अक्सर कई पिता-माता अपनी कमाऊ बेटी की शादी नहीं करना चाहते हैं। जिस बच्ची की जिद बचपन में पूरी करते हैं, वही यदि अपने मन का साथी चुन ले तो उसे मार कर फेंकने में भी गुरेज नहीं करते हैं। इस आलेख में हम केवल पिता की बात करेंगे। माताओं पर फिर कभी।

अगर धृतराष्ट्र जैसा पिता हो जो अपने बेटे की गलती को देख कर भी अनदेखा करे, तो महाभारत अवश्य होगा। धृतराष्ट्र को पिता के रूप में जो करना चाहिए था उन्होंने वह नहीं किया। ऐसे पिता भूल जाते हैं कि इससे न केवल उनके बेटे का नुकसान होगा वरन उनकी भी हानि होगी, साथ में और बहुत कुछ अनिष्ट होगा। खैर, बात करते हैं कुछ कलाकारों-रचनाकारों के पिता की जिन्होंने अपने ही बच्चों का जीवन दूभर कर दिया। कई बार पिता अपने बच्चों की प्रतिभा से भयभीत होते हैं। उन्हें अपने बच्चों से ईर्ष्या होती है और वे उन्हें नष्ट करने की बात जाने-अनजाने ठान लेते हैं। याद आ रही है रुआल्ड डाल की लिखी एक किताब और उस पर बनी फिल्म ‘मटिल्डा’। इसमें पिता अपनी बच्ची की प्रतिभा को समझ नहीं पाता है, मगर उसे नष्ट करने का कोई अवसर नहीं छोड़ता। बच्चे के लिए पिता बहुत बड़ा आदमी होता है, आकार-प्रकार में भी। वह सिर उठा कर ही अपने पिता को देख पाता है। उसकी नजर में पिता शक्तिशाली और प्रभावशाली आदमी होता है। मटिल्डा का पिता कहता है- ‘मैं सही हूँ और तुम गलत हो, मैं बड़ा हूँ और तुम छोटी हो और इस विषय में तुम कुछ नहीं कर सकती हो।’ सच, एक बच्चा अपने पिता के सामने क्या कर सकता है। उम्र और शारीरिक ताकत दोनों में पिता बड़ा होता है।

पिता का भय बच्चे के अवचेतन में बैठ जाता है। यह भय वयस्क होने पर भी शायद ही निकलता है। मैं एक स्त्री को जानती हूं, जब वह छोटी थी, उसका पिता उसे हर सही-गलत बात पर घूर कर देखता था। बाद में भी उसे कुछ भी करते समय सदा लगता कि दो आंखें उसे घूर रही हैं, पति से सहवास करते समय भी। कदाचित ही व्यक्ति अपने पिता के साये से बाहर निकल पाता है। चूंकि बच्चा अपने पिता को अपने हृदय की गहराइयों से प्रेम करता है, अत: जब भी वह अपने पिता का विरोध करता है या उनकी मर्जी के खिलाफ कुछ करता-सोचता है, अपराध बोध से भर जाता है। पिता और बच्चे का रिश्ता बड़ा जटिल होता है। पिता बच्चे का पहला हीरो, प्रथम आदर्श होता है। बुद्धिमान बच्चे के लिए पिता की यह छवि बड़ी जल्दी भंग हो जाती है। इससे बच्चे का नुकसान होता है। मूर्ति टूटना उसके मूल्यों को खंडित कर देता है।

प्राचीन काल से ऐसे पिता होते आए हैं जिन्होंने अपने बच्चों की हानि की है। याद कीजिए ययाति को जिसने अपनी शारीरिक तृप्ति के लिए बेटों से उनकी जवानी मांगी। केवल एक बेटा पुरु अपनी युवावस्था देने को राजी हुआ। यह दीगर बात है कि ययाति को बरसों-बरस भोग करने के बाद भी तृप्ति नहीं हुई, अपनी गलती का भान हुआ और उन्होंने बेटे की जवानी लौटा दी। जवानी न हो गई खाला का घर हो गई। और इसी ययाति ने अपनी बेटी माधवी के साथ जो किया वैसा तो किसी दुश्मन के साथ भी न हो। इसी परिवार में आगे चल कर महाराज शांतनु सत्यवती के प्रेम में पड़े और अपने योग्य पुत्र को उसके अधिकारों से वंचित कर दिया। यहां भी बेटे ने त्याग किया, आजीवन ब्रह्मचारी रहने और राजगद्दी पर न बैठने की भयंकर प्रतिज्ञा की और भीष्म कहलाए। सुन्क्षेप के पिता ने अपनी गरीबी के चलते अपने बेटे को बलि चढ़ाने के लिए बेच दिया और जब इस नरबलि के लिए कोई पंडित राजी न हुआ तो पिता ने स्वयं बेटे की बलि चढ़ानी चाही। कहानी कहती है- बालक मरा नहीं और आगे चल कर बहुत बड़ा ऋषि बना। हरिश्चंद्र ने अपने बेटे रोहित को अपनी पत्नी के साथ भरे बाजार में बेच दिया। और दुष्यंत ने अपने पुत्र भरत को पहचानने से ही इंकार कर दिया। बच्चे पर इसका कैसा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा होगा, शोध का विषय है। कहावत है-मामा न होने से काना मामा बेहतर है। लेकिन पिता के न होने से बदतर है, बुरे पिता का होना। लेकिन ज्यॉ पॉल सार्त्र तो आजीवन अपने पिता से गुस्सा रहा कि उसे पिता ने कभी किसी बात का मौका ही नहीं दिया, क्योंकि उसका पिता उसकी शिशु अवस्था में ही गुजर गया था।
पिता-पुत्र के संबंधों पर हिंदी साहित्य में कुछ बेहतरीन कहानियां मिलती हैं। ज्ञारंजन की कहानी ‘पिता’। धीरेंद्र अस्थाना की कहानी ‘पिता’ इसी श्रेणी में आती है। खैर ये कहानियां हैं और हम बात कर रहे हैं जीते-जागते पिताओं की, उनके बेटों की। लियोपोल मोजार्ट, फिलिप टोग्लिओनी, हरमान काफ़्का, गुलाम हसन (सआदत मंटो के पिता) ऐसे ही पिता थे। इन संदर्भों में पिता का दुर्व्यवहार पता चलता है, भाषिक और भावात्मक शोषण की बात आती है, इसमें शारीरिक दंड भी शामिल है। मगर इनमें से किसी ने भी अपने पिता पर यौन शोषण का आरोप नहीं लगाया है।

एक बार सिपाही एक चोर को हवालात में डालने लाया। चोर ने हवालात में घुसने के लिए अपना दांया पैर आगे बढ़ाया तभी सिपाही ने एक झापड़ रसीद किया-‘साले यह तेरी ससुराल है, जो दाएं पैर से घुस रहा है।’ चोर ने पैर पीछे कर लिया और बायां पैर आगे बढ़ाया तभी फिर झापड़ पड़ा-‘बाएं पैर से घुस कर हमारा नुकसान करना चाहता है।’ चोर ने पैर पीछे खींच लिया और इस बार उसने दोनों पैर एक साथ उठा कर, कूद कर प्रवेश करना चाहा कि तभी फिर झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा- ‘सरकस है जो करतब दिखा रहा है।’ कई पिता ठीक ऐसा ही व्यवहार अपने बच्चे के साथ करते हैं और बच्चा भ्रमित रहता है, उसे पता ही नहीं चलता कि क्या सही और क्या गलत है, किस बात पर उसे डांट-मार पड़ेगी।

फिलिप टोग्लिओनी एक औसत दर्जे का बेले नर्तक और कोरियोग्राफर था मगर उसकी महत्वाकांक्षा बहुत ऊंची थी। उसे भली-भांति ज्ञात था कि वह कभी न तो महान नर्तक और न ही महान कोरियोग्राफर बन सकता है। अत: उसने अपनी समस्त महत्वाकांक्षाएं अपनी बेटी मारी टोग्लिओनी पर रोप दी। उसे यह भी ज्ञात था कि उसकी बेटी भी कोई विशेष प्रतिभावाली नहीं है। उसने कूबड़ वाली, झुके हुए कंधे, घटिया शक्ल-सूरत सपाट चेहरे, भावहीन आंखें और कांतिहीन त्वचा वाली सामान्य लड़की को विशिष्ट बनाने की ठान ली। अपनी जिद्दी, अनाकर्षक बेटी के भीतर उसे एक कुशल नृत्यांगना छिपी नजर आती। इस नृत्यांगना को उभारने के लिए उसने क्रूरतम तरीका अपनाया।

प्रशिक्षण के दौरान वह बहुत कठोर व्यवहार करता। अक्सर मारी को बुरी तरह पीटता। इतना पीटता कि वह कई दिन तक अपने घाव सहलाती रहती। मारी की दिनचर्या बहुत कठिन थी। रोज छह घंटे का अभ्यास। सुबह दो घंटे, दोपहर दो घंटे और रात भी दो घंटे। कभी कोई छूट नहीं, कोई परिवर्तन नहीं, कोई अवकाश नहीं। इसमें शारीरिक लचक बनाए रखने के लिए दो घंटे व्यायाम, दो घंटे विलंबित लय का अभ्यास और ऊपर उछल कर शानदार त्वरित गति से नीचे आने का दो घंटे का अभ्यास शामिल था। कोई कोताही नहीं, रूटीन में जरा-सी गलती की सजा पिटाई, डांट-मार। ऊपर कूदने और तेज गति से, शाही ढंग से घूमते हुए नीचे आने के लिए फिलिप का आदर्श थी, कूद कर ऊपर जाती और नरमी के साथ नीचे उतरती बेलेरीना थेरेसे हेबरले। फिलिप मारी से यही चाहता था, भले ही इसके लिए कोई भी उपाय करना पड़े। फिलिप जरूरत पड़ने पर अपने स्वार्थ के लिए बराबर झूठ का सहारा लिया करता था। पैरों में सर्दी से फफोले खुल जाने के कारण फिलिप ने पेरिस आॅपेरा में मारी का एक प्रदर्शन रद्द कर दिया था और बेटी के गर्भवती होने की बात घुटनों में परेशानी के नाम पर छिपाई थी। वह भी महीनों वह बिस्तर पर पड़ी रहने का नाटक करती रही।
फिलिप बहुत ईर्ष्यालु, व्यावहारिक और शातिर व्यक्ति था। उसने मारी को एक सटीक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया। जिद ठान ली और इस बात को वह हर करारनामे में पक्के तौर पर लिखवा लेता कि मारी केवल और केवल उसी की कोरियोग्राफी में नृत्य करेगी। उसकी कोरियोग्राफी बहुत साधारण असल में घटिया किस्म की थी। उस पर अक्सर चोरी का आरोप लगता रहा जो काफी हद तक ठीक भी है। मारी की बांकी नृत्य शैली सीमित थी। उसे कभी अपनी प्रतिभा के फैलाव का अवसर न मिला। फिलिप उसे अपनी ही रेंज में घुमाता रहा। नतीजन मारी एक मनुष्य के रूप में विकसित न हो सकी, जिद्दी, नकचढ़ी, छुद्र हृदय, संकीर्ण स्वभाव वाली, सामान्य-सपाट दिमाग वाली बदगुमान,अस्थिर स्त्री बनी रही। स्वार्थ ने पिता को अंधा कर दिया था।

लियोपॉल्ड मोजार्ट और आना मारिया के सात बच्चे हुए। मगर 1756 में पैदा हुआ बेटा योहार्नेस क्रिसोस्थॉमस वुल्फगैंगसआमडेयुसमोजार्ट तथा बड़ी बेटी मारिया आना ही जीवित रही। मारिया का पुकारू नाम नानेर्ल था। दोनों बच्चे प्रतिभाशाली थे। लड़की को उन दिनों के रिवाज के अनुसार जल्द ही बाहर गाने-बजाने से रोक लिया गया। लेकिन बेटे को पिता ने अपना सब कुछ सिखा दिया। आर्थिक हालात बहुत अच्छे न थे सो पिता ने बच्चों का प्रदर्शन शुरू होते राहत की सांस ली। वह बच्चों को लेकर संगीत टूर्स पर जर्मनी, बेल्जियम, फ्रÞांस, होलैंड, स्वीटजरलैंड, इंग्लैंड, इटली जाने लगा। नन्हा मोजार्ट इन महफिलों की जान होता। पिता बड़े गर्व से बताता-‘सारी लेडीज मेरे लड़के के प्यार में हैं।’ चूंकि पिता अपने बेटे के प्रमोशन में अपने काम के स्थान से बराबर गायब रहता अत: कोर्ट में उसे वांच्छित पदोन्नति नहीं मिली। जल्द ही बेटे ने स्वतंत्रता हासिल की और अकेले बाहर जाने लगा। पिता देख रहा था कि वह जिस ऊंचाई तक कभी नहीं पहुंच पाएगा, संगीत में बहुमुखी प्रतिभा संपन्न बेटा उन्हीं बुलंदियों को छू रहा है। सीनियर मोजार्ट ने 1762 के बाद अपने पुराने काम को ही दोहराया और 1771 के बाद तो उसने कोई संगीत रचना की ही नहीं। पिता अपना नियंत्रण खोना नहीं चाहता था अत: जब बेटा जाने लगता तो वह उसे नसीहत देता कि पैसा कमाने के लिए रोज ध्यान देना जरूरी है। तुम्हें प्रमुख लोगों का ध्यान पाने के लिए बहुत विनम्रता सीखनी चाहिए। एक टूर पर मोजार्ट के साथ उसकी मां गई थी और वहां बीमार पड़ कर 1778 में मर गई। पिता ने इसका दोष अपने बेटे पर मढ़ा और इसके लिए उसे कभी माफ नहीं किया।
आजिज आ कर बेटे ने लिखा, ‘तुम सोचते हो कि मैं छोटा और युवा हूं, मेरे भीतर कुछ महान और महत्वपूर्ण नहीं हो सकता, लेकिन बहुत जल्दी तुम देखोगे।’ पिता को झटका लगा जब बेटे ने साल्जबर्ग में गुलामी करने से इंकार कर दिया और कहा कि आर्कबिशप गुलामी के लिए मुझे काफी नहीं दे सकता है, मेरी प्रतिभा के लिए साल्जबर्ग नहीं है। पिता ने बेटे को यह पद एड़ी-चोटी का जोर लगा कर दिलाया था। पिता बेटे के वियना जाने के भी खिलाफ था। जिस बेटे के लिए वह कहता था, ‘चमत्कार जिसे ईश्वर ने साल्जबर्ग में पैदा किया’, अब उसके हाथ से निकल चुका था। कहां तो पिता अपनी बेटी की शादी के लिए भी बहुत उत्सुक नहीं था और कहां बेटे ने लड़की पसंद कर ली और वह उससे शादी करना चाहता था। बेटे ने कॉन्सटैन्ज वेबर से प्यार किया और पिता की मर्जी के खिलाफ 1782 में उससे शादी की। बाद में पिता को न चाहते हुए भी इसे स्वीकारना पड़ा। इस बाबत पिता-पुत्र में बहुत कठोर पत्र व्यवहार चला। जब बेटा टूर पर जाना चाहता था उसने अपने बच्चों की देखभाल के लिए अपने पिता से गुजारिश की तो पिता ने टका-सा जवाब दे दिया। मोजार्ट के एक जीवनीकार के अनुसार पिता तानाशाह की तरह बेटे के जीवन पर पूरी तरह से अधिकार चाहता था। इसी को किसी ने एक पेंटिंग में दिखाया है। पेंटिंग में बेटा पियानो बजा रहा है और पिता कंधे के ऊपर से निगाह रखे हुए है। भला ऐसा पिता कैसे सहन करता जब कोई कहता, ‘तुम्हारा बेटा तुमसे अधिक महान कम्पोजर हैं।’ कहते हैं पिता ईर्ष्यालु नहीं था। वह तो बस अपने गैर दुनियादार बेटे के प्रति चिंतित था। लेकिन जब यही पिता मरा तो बेटे के लिए यह एक बहुत बड़ा सदमा था।
फ्रेंज काफ़्का और उसके पिता हरमान काफ़्का की बात तो आज जगजाहिर है। काफ़्का ने अपनी कहानी, ‘मेटामोर्फोसिस’ और ‘द जजमेंट’ में अपने और अपने पिता एवं दोनों के संबंध को ही अभिव्यक्त किया है। साथ ही उसने अपने पिता को जो पत्र लिखा उससे दोनों के संबंध का खुलासा होता है। यह दीगर बात है कि पत्र उसकी मां ने कभी अपने पति को नहीं दिया। फ्रैंज डायरी भी लिखता था और उसमें भी दोनों के संबंध की कटुता दर्ज है। उसका पिता एक सेल्फमेड पुरुष था और जैसा कि ऐसे लोग होते हैं, वह बहुत अहंकारी और दूसरों पर नियंत्रण रखने वाला व्यक्ति था। उसे अपनी सफलता का बड़ा घमंड था और वह बेटे को असफल मानता था और बात-बात में यह जताता भी रहता था। फ्रैज अपने पिता से बहुत डरता था। पिता के कठोर व्यवहार से बेटे के आत्मविश्वास की हानि हुई थी। बेटा पिता से सदैव छिपता रहता या तो अपने कमरे में रहता या फिर किताबों में मुंह गड़ाए रहता।

आइए अब देखें हमारे अपने साअदत हसन मंटो और उनके पिता के संबंधों को। वही मंटो जिन पर बनी फिल्म के कारण आजकल चारों ओर मंटोनियत छाई हुई है। जो उर्दू में लिखते थे और विभाजन के बाद पाकिस्तान जा बसे, जिनके लेखन पर अश्लीलता के आरोप लगे, मुकदमे चले। जो भारतीय पाठकों के दिल में सौ साल बाद भी बसे हुए हैं। मंटो आजादी की लड़ाई में भाग लेना चाहते थे, वे कहानियां लिखना चाहते थे मगर उनके पिता इन बातों के सख्त खिलाफ थे। मंटो के लिए उनकी मर्जी के खिलाफ कुछ करना बहुत कठिन था मगर उन्होंने किया और साहित्य में अपनी जगह बनाई। एक बार मंटो ने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक नाटक संस्था खोली और आगा हश्र का एक नाटक खेलने का इरादा किया। मगर 15-20 दिन में ही एक दिन मंटो के पिता ने आ कर हारमोनियम-तबला सब तोड़ डाला और कहा, ‘उन्हें ऐसे वाहियात काम बिल्कुल पसंद नहीं हैं।’ ऐसे थे उनके पिता मगर ऐसे पिता भूल गए कि मंटो उन्हीं का बेटा है और जो ठान लेगा वह करके रहेगा।

बच्चे के जीवन में पिता की अहम भूमिका होती है। पिता का कर्तव्य बच्चों का पालन-पोषण करना होता है। मगर कई बार पालना झुलाने वाले हाथ ही बालक का सत्यानाश कर डालते हैं। उसके व्यक्तित्व को निखारने के बजाय उसे जकड़ कर संकुचित, विरूपित कर डालते हैं। जरा सोचिए बच्चा अगर प्रतिभावान, मजबूत न हुआ तो बच्चे का क्या होगा।